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Monday, November 30, 2009

"मन का रेडियो बजने दे जरा

आजकल एक गीत हर जगह बज रहा है "मन का रेडियो बजने दे जरा", जब सूना तो पहले तो लगा मन क्या एक रेडियो हो सकता है ...फिर लगा क्यों नहीं अगर मन को कोई बात परेशान कर रही तो, वाकई दूसरा चैनेल लगा कर ध्यान बटाया जा सकता है...


पड़ोस की छत पर खडा मोहित अभी तक टकटकी लगाकर शुची की खिड़की की तरफ देख रहा है ,शायद खिड़की खुले और एक झलक दिख जाए दो दिन हो गए घर से निकली भी नहीं,मोबाइल भी स्विच ऑफ कर रखा है, सारी रात जागते हुए बीती है,समझ में नहीं आ रहा क्या हो गया.......

शुची और मोहित का रिश्ता दोस्ती और अफेयर के बीच में चल रहा है,ना मोहित पूछ पा रहा है ,ना शुची कोई इशारा दे रही है जो दोस्ती को कोई नया नाम दे दिया जाए, बड़ा मुश्किल होता है ये बीच का समय , दो छोटे शब्द हाँ या ना पर फैसला ज़िन्दगी भर का, आँखों से बातों से तो एक दुसरे को पसंद करने का एहसास होता है पर पसंद और प्यार फिर दो बिलकुल अलग बातें है , उफ्फ्फ इस कशमकश से ऊपर वाले अब तू ही निकाल अब चैन नहीं या तो इस पार या उस पार...

मोहित के माथे पर पसीने की बूँदें छलक आई.

तभी फ़ोन की घंटी बज उठी शुची का नंबर देख कर मोहित की धड़कने तेज़ हो गई ,"कहाँ हो कैसी हो यार , फ़ोन क्यों स्विच ऑफ था

अरे बाबा मिलो तो बताती हूँ बहुत बातें करनी है तुझसे ,शची ने हुलसते हुए कहा

गुलाबी सूट पहने शुची कितनी मासूम लग रही है ,आज बिलकुल सही दिन है अपने दिल का सारा हाल बता दूंगा आखिर कितने दिन तक मन की बात बताये बिना रह पाऊंगा, मोहित के चहरे पर मुस्कान खेल गई .

"मोहित ओ माय god , मैंने कभी नहीं सोचा था मम्मी पापा इतनी आसानी से राज़ी हो जायेंगे विपुल के लिए" शुची लगातार बोलती जा रही थी झरने की तरह

और मोहित की हालत एक दम जड़ पत्थर की तरह जिसके ऊपर से शुची की सारी बातें पानी की तरह गुज़र रही थी वो कुछ समझ नहीं पा रहा था, शुची इन सबसे अनजान विपुल और अपने रिश्ते के बारे में बताने लगी थी.

मोहित का दिल कर रहा था अपने मन का सारा गुबार बाहर निकाल दे ,शुची तुमने ऐसा क्यों किया, अगर तुम किसी और की थी तो मुझे कभी बताया क्यों नहीं ,शुची को चहकता देख कर उसकी हिम्मत नहीं पड़ी,और वो विदा लेकर बाहर आ गया, आसमान में बादलों की तरह दिल में दर्द के बादल उमड़ रहे थे, अपने रूम में बिस्तर पर लेटते ही आँखों से सब भावनाए आंसुओं का रूप ले कर निकल पड़ी....पता नहीं कब रोते रोते आँख लग गई

जब आँख खुली तो आसमान के बादलों के साथ मन भी साफ़ हो चुका था और नेपथ्य में कही ये पंक्तियाँ बज रही थी

"चैनेल कोई नया tune कर ले ज़रा टूटा दिल क्या हुआ अब उसे भूल जा .....मन का रेडियो बजने दे ज़रा"

Thursday, November 19, 2009

आकर्षण

ये तन ऐसा है जो मन के हिसाब से चलता है पर दिमाग की बिलकुल नहीं सुनता, आज मेरा मन पता नहीं क्या क्या सोच रहा है शादी के आठ साल बाद आज ये इतना बेचैन क्यों है ,कितनी खुशहाल ज़िन्दगी चल रही है घर परिवार भरा पूरा है, ऐसा कुछ नहीं जिसकी कमी हो ,प्यार करने वाला पति दो प्यारे प्यारे बच्चे, बचा समय में घर पर पास के बच्चों को पेंटिंग और क्राफ्ट सिखा लेती हूँ, पूरे हफ्ते सब अपने में व्यस्त रहते है और रविवार को सारा दिन मस्ती...मेरी ज़िन्दगी ऐसी ही चलती रहती अगर मेरी मुलाक़ात इनके बचपन के दोस्त वैभव से नहीं होती....



वैभव और उसकी पत्नी मेधा ट्रान्सफर होकर लखनऊ आये तो उन्होंने इनसे संपर्क किया , अपने बचपन के दोस्त को करीब पाकर ये भी बहुत खुश थे, तीन दिनों में उनकी शिफ्टिंग और सब कुछ सेट हो गया, दोनों का स्वभाव बहुत अच्छा था, हमारा उनसे मिलना अक्सर होने लगा,बच्चों का मन भी उनके बेटे विशाल में रम गया......


मैंने और मेधा ने लगभग सब कुछ बाँट लिया अपनी रुचियाँ अपने सपने ,अपने विचार वैभव और ये भी हमारी बातों में बहुत रस लेते...दिन बीते होली आ गई, हम सारे होली की प्लानिंग करने लगे बच्चे तो हद से ज्यादा उत्साहित थे ,हमारे घर में होली का कार्यक्रम रखा गया , सुबह सुबह सब एक दुसरे के रंग लगाने में लग गए,मैंने मेधा को रंग लगाया और होली की बधाई दी,फिर मैं वैभव को रंग लगाने बड़ी और मैंने उनके गालों पर रंग मॉल दिया फिर क्या था वैभव और इन्होने मिलकर मुझे बुरी तरह से रंग लगाया..रंग लगवाते हुए अचानक मुझे वैभव का स्पर्श कुछ अजीब सा लगने लगा, मैं सहज नहीं हो पा रही थी मैंने वैभव की तरफ देखा तो उसकी आँखों में कुछ अजीब सी चमक थी......तभी बच्चे आ गए और हमारा रंग लगाने का कार्यक्रम ख़त्म हो गया...


होली तो चली गई पर अकेले में मुझे वो स्पर्श अचानक याद आता और मेरे मन में वैसी ही गुदगुदी होती जैसी शायद इनके पहले स्पर्श से हुई थी...वैभव अब भी आते पर मैं अब उतनी सहज नहीं रह पाती...उसकी आँखों में मेरे लिए आकर्षण साफ़ दिखता मेरे जन्मदिन पर मुझे हाँथ मिलाकर विश करते समय उसने मेरा हाँथ ज़रा जोर से दबा दिया और सर से पाँव तक मैं सिहर गई..


मेरे होंठों पर एक रहस्यमयी सी मुस्कान हमेशा रहने लगी, हमारी विवाहित ज़िन्दगी में जो ठंडापन आ रहा था वो कुछ कम होने लगा..मैं जब इनको स्पर्श करती या ये मुझको बाँहों में लेते तो मेरे मन में अचानक वैभव की छवि आ जाती और मैं और जोश के साथ इनसे लिपट जाती, ये मुझे छेड़ते क्या बात है आजकल तुम बदली बदली सी लगने लगी हो...मैं अपने मन में भी वैभव के लिए आकर्षण महसूस कर रही थी..दिमाग कह रहा था "क्यों अपना बसाया परिवार उजाड़ रही है " पर दिल ओ सपने बुन रहा था "इसमें बुराई क्या है किसी को मैंने बताया थोड़े ही है".........


मन हमेशा से ऐसा पाने को लालायित रहता है जो वर्जित हो मैंने कितनी बार कल्पना में अपने को वैभव की बाहों में देख लिया था और मन का चोर कहता था अगर ये सच में हो गया तो कैसा रहेगा,क्या वैभव भी ऐसा ही सोचते है मेरे बारे में ....


क्रिसमस की छुटियों आ गई और हमदोनो परिवारों नें मनाली जानें का कार्यक्रम बना लिया...सच कहूं इनके साथ जाने से ज्यादा मेरा मन वैभव के पास होने के एहसास से खुश था पैतीस साल की उम्र में मुझ में सोलह साल की लड़की सा अल्हडपन आ गया था,सारे रास्ते हम हंसी मज़ाक करते गए बीच बीच में वैभव मुझपर एक प्यार भरी निगाह डाल देता,...दोनों शायद अपने अपने दिल के हांथों मजबूर हो रहे थे, और इस सब में ये भूल बैठे थे की हमारे साथ हमारे जीवन साथी भी हैं ,जो शायद इस बदलाव को महसूस कर रहे थे....


मेधा बहुत समझदार थी, एक स्त्री होने की वजह से उसकी छठी इन्द्रिय ज्यादा सक्रिय थी, शाम को ये और वैभव जब बच्चों को झूले पर ले गए तो मैं और मेधा अकेले बातें करने लगे,


मेधा बोली " नीतू बहुत ठण्ड हो रही है इससे अच्छा हम लखनऊ में ही रहते "


मैंने उसकी बात को मज़ाक में लेकर बोला "क्यों क्या मज़ा नहीं आ रहा ..इतना अच्छा मौसम इतना सुकून मेरा तो यहाँ से जाने का मन ही नहीं कर रहा लगता है बस समय यहीं रुक जाए "


"यही अंतर होता है नीतू किसी को एक एक पल भारी सा लगता है और किसी के लिए समय के पंख लग जाते है " मेधा ने दार्शनिक से संदाज़ में बोला


"तेरे मन में क्या है मुझको तो बता सकती है " मैंने अपने मन के चोर को दबा कर पूछा


"नीतू मैं थोड़े समय से वैभव में बदलाव महसूस कर रही हूँ, मेरा भ्रम भी हो सकता है,मुझे कभी कभी लगता है जैसे ये मेरे साथ होकर भी एरे साथ नहीं है " मेधा के गेहुएं चेहरे पर चिंता की लकीर खीच गई


मेरा चेहरा फक पड़ गया ऐसा लगा बीच बाज़ार में निर्वस्त्र हो गई हूँ ,अबी तक दिमाग की बातों को दिल सामने आने नहीं दे रहा था पर अब दिमाग दिल पर हावी होने लगा " अगर मेधा नें वैभव में परिवर्तन महसूस किया है तो इन्होने भी तो महसूस किया होगा " मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी की मैं मेधा से निगाह मिलाऊं .


"मैडम होटल चलें बहुत थक गया हूँ " सामने से इन्होने मुस्कुराते हुए कहा "तुमको क्या हुआ " इन्होने मेरा उतरा चेहरा देखकर पूछा "


"मैं भी बहुत थक गई हूँ " मैंने सकपका कर जवाब दिया


मयंक सो गए पर मेरी आँखों से नींद तो कोसों दूर थी "मैं क्या करने जा रही थी ,अपना पति ,अपने बच्चे अपनी दोस्ती सब कुछ इतने सारे रिश्ते एक पल के आकर्षण पर दांव पर लगा रही थी " मेरी आँखों से आंसू बह निकले और मैंने अपने पास लेते हुए मयंक को देखा जो बच्चों जैसी निश्तित्ता के साथ सोये हुए थे अचानक मैं माक से लिपट गई ,मयंक नें मुझे रजाई में खीच लिया और मैं उनके सीने से लग कर सो गई .....


सुबह जब आँख खुली तो मन हल्का हो चुका था आसमान के साथ मन से भी बादल छंट चुके थे, मुझे सुकून था मैंने अभी कुछ खोया नहीं था अब मुझे वैभव को भी उस आकर्षण से बाहर निकालना था जिसके चलते हम दोनों अपने रिश्तों में ज़हर घोलने चले थे....


"आज स्कीइंग करने चलते है " वैभव नें मेरी तरफ देखते हुए कहाँ बच्चे भी हाँ में हाँ मिलाने लगे


"अगर आप लोगों को प्रॉब्लम ना हो आप लोग बच्चों को लेकर चले जाओ, आज हमारा मूड होटल में ही रहने का है" मैंने रोमांटिक अंदाज़ में मयंक के गले में बाहें डालते हुए कहा.


"आप अपना सेकंड हनीमून मनाइए बच्चे हमारे साथ चले जायेंगे, मयंक आज नीतू मैडम मूड में है ज़रा संभल कर " मेधा ने मुस्कराते हुए अपनी दाई आँख दबा दी...


मयंक,मेरे और मेधा के ठहाके गूँज उठे और शायद वैभव भी मेरा इशारा समझ गया और मुस्कुरा दिया...






तेरी इबादत


हम भी कमाल का हुनर रखते है
गम में भी मुस्कुरा लेते है
हमारी सिसकियाँ जहान ना सुन पाए
इसलिए ग़ज़ल गुनगुना लेते हैं

तुझको ही मान लिया अपना खुदा हमने
तुझको कब समझा अपने से जुदा हमने
जब जी चाह करें तेरी इबादत
तेरे कंधे पर सर को झुका लेते है

माना बहुत मसरूफ हो तुम
पर अपनी तन्हाई का क्या करें हम
जब जी चाहा तुमको करीब कर लूं
तेरी तस्वीर सीने से लगा लेते हैं









Sunday, November 8, 2009

एक बार फिर.......





जो हुई खता वो उसको भुला दो

एक बार फिर मुझको गले से लगा लो

बनी जो आसुओं की लकीरें उन्हें मिटा दो

एक बार फिर.......



कितनी तन्हाई महसूस की है तेरे खफा होने के बाद

दर्द के सैलाब में बहे है तेरे जुदा होने के बाद

ना देखो बे-रुखी से बस मुस्कुरा दो

एक बार फिर मुझको गले से लगा लो



नादानियां हो जाती है उम्र के इस मोड़ पर

कोई जाता है क्या अपने महबूब को यूँ छोड़कर

दौड़ कर लिपट जाऊं इतना तो हौसला दो

एक बार फिर मुझको गले से लगा लो



हम भी देखेंगे कितने दिन मुलाकात ना करोगे

सामने बैठोगे पर बात ना करोगे

इससे पहले मैं थक कर फना हो जाऊं

एक बार फिर मुझको गले से लगा लो

Wednesday, November 4, 2009

तुम कहाँ हो मनु

डायरी के पन्ने,जैसे जैसे पलटे वैसे वैसे लगा की आज से निकल कर अतीत में पहुँच गई ,ऐसा लगा मानो फिर से सोलह साल की किशोरी बन गई हूँ, हर दिन nai उलझन नहीं खुशियाँ और नए सपने सब कुछ कितना उत्साह भरा.....एक दिन सब बदल गया जब मनु से पहली बार मिली ,मनु मेरी कक्षा में नई थी सिमटी सी मेरे से बिलकुल विपरीत..शायद यही आकर्षण था जिसकी वजह से मैं उसके सामने जा बैठी...
कहाँ से आई हो? पहले कौन से स्कूल में थी ? कहाँ रहती हो ? स्कूल कैसे आती हो
जैसे बीस सवाल मैंने बेचारी पर एक साथ छोड़ दिए वो बस टकटकी लगाकर मुझे देखती रही फिर मुस्कुरा कर बोली "तुम नेहा हो ना सही सूना था तुम्हारे बारे में "
अब आश्चर्य में पड़ने की मेरी बारी थी नहीं लड़की जो आज ही आठवी कक्षा में आई है मुझको जानती है, वो मेरी उलझन समझ गई बोली "मेरी बुआ की बेटी दुसरे सेक्शन में है उसने बताया था कोई आये ना आये नेहा खुद बात करेगी तुझ से "
मेरी जिज्ञासा शांत कर उसकी हँसी छूट गई और मेरी हँसी भी कहाँ रुकने वाली थी ,मैं कब जानती थी ये छोटा सा परिचय अगले चार साल तक अटूट दोस्ती के बंधन में बदल जाएगा.
मनु पढाई में बहुत अच्छी थी और उसका सबसे बड़ा गुण था उसकी एकाग्रता, वो हमेशा कहती नेहा तेरी मेधा में कोई कमी नहीं है बस थोडा एकाग्र होकर पढाई किया कर......मैंने उसे अपने बारे में सब बता डाला घर से लेकर गली के नुक्कड़ वाले मकान की कहानियों तक और ओ हमेशा एक धैर्यवान श्रोता की तरह सब सुनती ......पर उसने कभी अपने बारे में बात नहीं की उसकी सारी बाते पढाई करियर से सम्बंधित होती ...हम साथ में टिफिन खाते जहाँ मेरे लंच में रोज़ कुछ अलग होता उसके टिफिन में उबले आलू और रोटी,
"तुम रोज़ रोज़ एक जैसे खाने से बोर नहीं होती " मैंने लंच के बाद हाँथ धोते हुए पूछा , सुबह-सुबह इससे ज्यादा नही बना सकती उसने बेतकल्लुफी से जवाब दिया , "तुम अपना लंच खुद पैक करती हो " प्रतिक्रया में मेरी आवाज़ कुछ ऊँचे स्वर में निकल गई ....
"मेरी माँ बीमार है तो बस दो साल से घर का सारा काम मैं खुद करती हूँ अब तो आदत पड़ गई है ,सुबह सारा काम कर के आती हूँ और वापस जाकर सारा काम करना होता है "
तुमने कभी बताया नहीं , इसी लिए तुम स्कूल में फ्री क्लास में भी पढाई करती होऔर उसने स्वीकृति में गर्दन हिला दी, उस दिन से मेरे मन में मनु के लिए प्रेम और गहरा हो गया मैं और मनु हमउम्र होने के बाद भी मनो दुनिया के अलग अलग छोर पर रह रहे हो ,जहाँ मुझे सारी सुविधाए मिली वही मनु घर और पढाई दोनों कितनी अच्छी तरह से संभाल रही थी....
समय बीतते देर कहाँ लगती है दोनों साथ में पढ़ते, एक अध्याय वो पढ़ती मुझे समझाती एक मैं पढ़ कर उसको इसी तरह हमने बारहवी की परिक्षा दे दी...स्कूल के बाद मिलने का वादा करके हम अलग हो गए मैं अपने ननिहाल चली गई,
रायपुर से कई बार मनु से संपर्क करने की कोशिश की पर बात नहीं हो पाई, मैंने सोचा घर जाकर मिल लूंगी, दो माह बाद उसी उत्कंठा से मैं उसकी घर पहुँच गई ...उसके घर पर बड़ा सा ताला लटका हुआ था, काफी देर तक कुछ समझ नहीं आया तो मैंने पड़ोस के घर की घंटी बजा दी दरवाजा एक बुजुर्ग अंकल ने खोला " मनु का परिवार क्या कहीं बाहर गया हुआ है " मैंने बेचैनी से पूछा, उन्होंने जो उत्तर दिया उसने तो मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन खींच ली कितना कुछ घट गया था मनु की ज़िन्दगी में पिछले दो माह में .......
लम्बी बीमारी के बाद मनु के माँ ने प्राण छोड़ दिए थे, घर वालों नें मनु पर दवाब बना कर उसका विवाह करवा दिया ,और उसके पिता शहर छोड़ कर जा चुके थे.
सब कहते है दुनिया बहुत बड़ी है आज महसूस हो रहा था ....मेरी सबसे प्रिय सहेली के जीवन में तूफ़ान आया था और मैं उससे पूरी तरह अनजान रही.
आज इतने साल बाद भी भीड़ भरे चौराहों से गुजरते हुए निगाह अचानक ठहर जाती है शायद कहीं मनु मिल जाए , मैं नहीं जानती वो कहाँ है कैसी है... बस एक बार मिल जाए.....पर हताशा ही हाँथ लगी ...
तुम कहाँ हो मनु

Tuesday, November 3, 2009

मैं और मेरी दुनिया



कपोल कल्पना की ये दुनिया
मुझको तो मादक लगती है
इस दुनिया की कितनी कृतियाँ
नयनों आगे तिरती है

जिसको चाहूँ जो कह डालूं
जिसको चाहूँ दास बना लूं
या फिर सिंहासन पर बैठाकर
बोलो राजतिलक कर डालूं

एक छाया को मित्र बनाकर
अपने दिल के राज सुना दूं
स्वयं अपनी प्रशंसा में फिर
एक प्रशस्ति गीत मैं गा लूं

आप बनूँ मैं स्वयं की प्रेमिका
खुद ही रूठूं खुद ही मन लूं
या अंजुरी में भर गुलाबजल
अपना मुख सुवासित कर डालूं

इस तनाव भरे जग में
क्यों खुशियों हेतु किसी का मुख देखें
आप ही अपने मित्र बने हम
खुद से प्रेम करना सीखें