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Wednesday, October 27, 2010

बेबस और आवारा चाँद

एक शाम का राजा होता
हर कोई दुलराता है
कब आएगा कब आएगा
कह कर टेर लगाता है
सबकी आँखे नभ पर चिपकी
अपने रंग दिखाता चाँद  
कितना ख़ास हूँ आज की रात मैं
सोच सोच इतराता चाँद
अभी तलक तो नभ में लटका
सबका था राजदुलारा चाँद 
खिड़की खिड़की झाँक रहा अब
बेबस और आवारा चाँद
 

Monday, October 25, 2010

ऐसे करवाचौथ मनाऊं


मेहँदी रचाऊं
रूप सजाऊं
बांध पायल
तुझे रिझाऊं
गहरी आँखे
गहरा काजल
तुझे पिया मैं
कहाँ बसाऊं
रात सी वेणी
चाँद का गजरा
लट का बादल
बिखरा बिखरा
चाँद सा मुखड़ा
चाँद की बाली
आई रात
सुहागों वाली
चाँद पिया और
चाँद हूँ  मैं भी
ऐसे करवाचौथ
मनाऊं

Thursday, October 21, 2010

इसी का नाम प्यार है

खामोश कीचड़ की तरह


वजूद से लिपट गए हो

तुम्हारे नाम के छीटों से

आज भी आँचल दागदार है

भरे ज़माने में रुसवा हुए

निगाह ना उठा पाए

तुम हँस के कहते हो

इसी का नाम प्यार है

Tuesday, October 12, 2010

नवरात्र

नवरात्र !


(शीतला माता ,गुडगाँव )

देवी के दिन इन दिनों का अलग ही उत्साह रहता है एक नारी के जीवन में ,इतनी शक्ति महसूस होती है इनदिनों पूछो मत हर उम्र में अलग रंग लाता है ये त्यौहार ,साल में दो बार, बचपन में जहाँ हलवा पूरी,दही जलेबी,रंगीन चुनरी और चमचमाते और खनखनाते सिक्को का आकर्षण ,तरुणाई में नौ दिन के व्रत ,देवी उपासना और सुरगा सप्तशती का पाठ.

साल के बाकी दिनों से कितना विरोधाभास दीखता है समाज में इन दिनों ,जहाँ साल भर लड़कियों को हे द्रष्टि से देखा जाता है वहीँ इनदिनों ढूंढ मच जाती है कन्याओं के लिए ...वाह रे समाज ,जिनका पैर पूजन करते है उन्ही के घर में पैदा होने पर उदासी का माहौल बना लेते है ( सोच बदल रही है पर मंजिल अभी भी दूर है ).

इन दिनों माँ अपनी कृपा के सारे द्वार खोल देती है जितना मांगो उससे ज्यादा मिलता है , रोज़ की उठापठक बस हाँथ जोड़कर काम चला लेते है कम से कम नवरात्र के बहाने ही सही साल में दो बार,थोड़ा आध्यात्मिक हो जाते है तो मन को शान्ति मिल जाती है .

आप सभी को नवरात्र बहुत बहुत शुभ हो

Wednesday, October 6, 2010

रहस्यमयी

"लिखना जरूरी है क्या उसने सिगरेट के धुएं  से छल्ला बनाते हुए कहा"


"तुम्हारे लिए जैसे सांस लेना ज़रूरी है वैसे ही मेरे लिए लिखना"
"कैसा महसूस करते हो कोई रचना जब स्वरुप लेती है" ,अब वो एक पत्रकार की तरह बात कर रही थी
बहुत उलझा हुआ,करेक्टरहै ये प्रिया भी ,आज तक समझ नहीं पाया ,अगर उसके पंख होते तो शायद अब तक आसमान में होती एक आज़ाद परिंदे में और उसमें बस पंखो का ही अंतर था, एक डाल से दूसरी बिना किसी क्षोभ के गिल्ट के ,

"जीवन नदी की तरह है इसपर जितने पुल और बाँध बनोगे इसकी गति उतनी मंथर होगी और एक दिन जीवन समाप्त "
बाप रे लेखक तो मैं नाम का हूँ अगर वो अपने ख़याल लिखने लगे तो रातो-रात स्टार बन जाए .................
रात से याद आया उसको रात बहुत पसंद है, अँधेरी सूनसान, कहती है अपने को जानने का सही मौक़ा मिलता है रात को ...नीरव, इन्ही नीरवता भरी रातों में जब हम दोनों एकाकार होते है तब मुझे उसके मन में पसरा सन्नाटा और करीब से दिखता है हाँ मैं देख सकता हूँ ,सब साफ़ साफ़

वो ऐसी क्यों है हमेशा पुछा पर नहीं जान पाया ...हस देती "तुम मेरा वर्तमान हो ना तो अतीत के पीछे क्यों पड़ते हो,कब्र खोदकर सड़ी बदबूदार लाश बाहर मत निकालो वर्तमान भी मुश्किल हो जाएगा."

पर मैं इस चंचल नदी का स्त्रोत जानना चाहता था,ऐसी मुझे कभी कोई नहीं मिली ,इतनी निर्लिप्त की उसके इस निर्लिप्त स्वरुप से निकलने का मन ही ना करे ..गज़ब का आकर्षण, हफ़्तों बिता दिये उसके साथ सोते जागते पर मोह बढता गया ,और साथ में जिज्ञासा भी.

उसने कुछ शर्ते रखी थी साथ आने से पहले , कभी अतीत पर कोई सवाल नहीं करना ,रिश्ते में बाँधने की कोई कोशिश मत करना....
मुझे अक्सर वो शिवानी की नायिका सी लगती ..खूबसूरत,स्वतंत्र, रहस्यमयी
कई बार मैंने उसे कहा चल मैं तेरी कहानी लिखता हूँ ,उसका जवाब हमेशा एक था जिस दिन मेरी कहानी लिखो हमारे रिश्ते पर समाप्त लिख देना.
अब मेरी जिज्ञासा इस हद तक बढ़ गई थी की मैं उसकी सभी वर्जनाओं को भी पार करना चाहता था आखिर ऐसा क्या है उसके अतीत में ????

उस रहस्यमयी के कमरें में इतिफाक से कहूं या जानकर...कलम ढूंढते हुए कुछ तसवीरें कुछ पन्ने हाँथ लग गए,और सच अनावृत हो गया..मैंने सच में एक कब्र खोद दी थी जिसमें से इतनी सड़ांध उठ रही थी की सांस घुटने लगी ...और वो तो इस सड़ांध के साथ जी रही थी ...

"कम उम्र में व्याह दी गई थी,दो गर्भपात, मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना. जीवन साथी बेहद शक्की,घर से बाहर जाता तो ताला लगाकर,मायके मित्रों से सारे सम्बन्ध ख़त्म करवा दिए..... ये नरक चलता रहता एक दिन एक्सिडेंट के बाद बिल्लाख बिलख कर रोई ,दुनिया उसके आंसू दुःख के समझ रही थी ,उसको विशवास नहीं हो रहा था की अब वो आज़ाद थी..."

तभी वो अब किसी बंधन में पढ़ना नहीं चाहती ..एक दम दिल में आया उसको गले से लगाकर कहूं मैं हूँ ना,मैं तुम्हारे जीवन में खुशियाँ लाउंगा,जो चाहो जैसा चाहो,मैं साथी बनूँगा ....

"नहीं माने ना तुम " वो सामने खड़ी थी ,मुस्कुराते हुए ..मैंने सोचा उसको गुस्सा होना चाहिए था पर वो तो हस रही थी ...
"तुमने आखिर समाप्त लिख ही दिया ना " उसने कुछ तल्ख़ स्वर में कहा और तेज़ क़दमों से निकल गई ....

उस रहस्यमयी को रोकने के लिए मैंने हाँथ तो उठाया पर रोक नहीं पाया ...

Friday, October 1, 2010

चले जाओ यहाँ से तुम

बुझा दो चांदनी को तुम



के मेरा जिस्म जलता है


हवा के सर्द झोकों  से


आँख में दर्द तिरता है


सुलग उठे जो तारे भी


पिघल के छुप गए बादल


छुपा दो नर्म फूलो को


झलक से नील पड़ता है


लगा दो पाबंदी हसने पे


औ curfew गीत गाने पे


कोई कोयल जो गर कूके


कानो में सीसा पिघलता है


तुम्हारे प्यार के किस्से


तुम्हारी चाशनी बातें


चले जाओ यहाँ से तुम


के मेरा दम भी घुटता है