Pages

Saturday, January 30, 2010

आज यूँही


यार आज यूँही कुछ लिखने का मन कर रहा है ,बिना किसी विचार के बस मन में उठे भावों को शब्दों का चोला पहनाकर देखते है क्या रूप लेता है , कहते हैं मन की उड़ान हवा से भी तेज होती है तो आज कहाँ ले जा रहा है मेरा मन........आज मूड बहुत अच्छा है कुछ असर ठण्ड के कम होने का है और कुछ बसंत ऋतू का है.


आँखों में सपने चमकने लगे है और होठों पर अनायास ही मुस्कराहट खेल जाती है क्यों ना हो हवा हे कुछ बौराई सी है और मेरा मन इस हवा के साथ उड़ा जा रहा है, क्या आप को भी कभी बंधन मुक्त होने का एहसास हुआ है ...हुआ होगा अगर कभी किसी बंधन में पड़े होंगे ..फिर वही पागलपन

"कभी मन चाहे बाँध लूं अपने को हज़ार बंधन में ,और करूँ महसूस उनको अपने हर स्पंदन में "

चलिए बस ब्लॉग से गुज़रते हुए यूँही कुछ लिख दिया , बसंत के मद ने आप पर भी कुछ असर किया होगा ....

मैं तो ये पूरे जोश से मना रही हूँ

Wednesday, January 27, 2010

गर

गर ज़िन्दगी इतनी आसान होती


तो हर लैब पर खिची मुस्कान होती

गर होता आसान सपने सजाना

न पड़ता फिर पलकों पे आँसूं उठाना



जीना है फिर भी जिए जा रहे हैं

अपने दर्दों को सीने में पाले हुए है

शायद कभी रौशनी हो मयस्सर

सुना है अंधेरों के बाद ही उजाले हुए हैं

Tuesday, January 19, 2010

मितिया


"अब के सावन में झुलनी गड़ा दे पिया


जिया हरसाई दे पिया ना "

मितिया कमर हिला हिला कर नाच रही थी , पंद्रह साल की उम्र में झुलनी और पिया का मतलब थोड़ा थोड़ा समझने लगी थी, अपनी राधा मौसी को देख देख कर बंजारों के सारे हुनर सीख रही थी, देखने में भले ही हूर की परी ना हो पर, चेचरे पर कैशोर्य का लावण्या अपना रंग बिखेरने लगा था, मौसी की सीख मानकर छोटी सी मितिया जिसे मौसी मीतु बुलाती थी अपने को सबसे बचाकर चलती थी , गली देने को जबान और हाँथ में छुरी ऐसी कुशलता से चलती थी के सुनने वाले अपने कानो पर हाँथ रख लेते और देखने वाले दांतों टेल ऊँगली दबा लेते.

डेरे पर साथ में रहने वाले मर्दों की नज़र मितिया पर पड़ने लगी थी और मौसी को अपनी इस दौलत का पूरा एहसास था यही थी उनके बुढापे का सहारा सो सबसे बचाकर रखती थी,पर उनके समाज का खुलापन बहुत लम्बे समय तक मौसी को मितिया को बंधन में रखने से रोक ना सका, मितिया और रंगजी चोरी चोरी एक दुसरे को देखने लगे थे, अजीब सा सम्मोहन लगता था रंगजी को मितिया के नाच में ,जब वो घुँघरू बंधती तो अनोखा समा छा जाता, ऐसा कोई राहगीर नहीं होता जो उसे नज़रंदाज़ कर निकल जाए ढोल बजाता रंग जी भी कहाँ उस पर से अपनी निगाह हटा पाता था, हज़ारों मर्दों की निगाह मितिया पर होती पर मितिया रंगजी के निगाह की गर्मी से मानो पिघल सी जाती और और उस के नाच का बहाव और तेज़ हो जाता,

मौसी इस खेल से अनजान नहीं थी उन्होंने मितिया को हर तरह से समझाने की कोशिश की, पर इस उम्र का बहाव किसी भी बाँध से नहीं रुकता, मन और तन दोनों बावले हो उठते फिर कोई सीमा कहाँ, अल्हड उम्र पिया का साथ , भविष्य के सपने, आसमान भी उड़ने को छोटा लगने लगा.

घंटो चिलम फूकते और दोनों सपने बुनते ,मितिया अपनी इस ज़िन्दगी से छुटकारा चाहती थी ,रंगजी जो था उससे संतुष्ट था अपने डेरे वालों की तरह उसे शराब की भी लत नहीं थी सो सारी कमाई अपनी थी..कभी कभी मितिया की आँखों चमक रंगजी के दिल में दर बैठा देती वो कहता "मितु युझे आखिर करना क्या है ".

मितिया मुस्कुरा कर उसके कंधे पर सर रख देती.

एक दिन मितिया का नाच ख़त्म हुआ रंगजी सामान समेट रहा था अचानक सामने गाडी से उतर कर एक साब उतर कर आया, "बहुत अच्छा इटेम पेश किया तुम लोगों ने , आकर मुझसे मेरे होटल में मिलो "

मितिया और रंग जी की आँखे विस्मय से से फैल गई जब साब ने ५०० का पत्ता बक्शीश के रूप में उनके हाथ में रख दिया, दोनों समझ नहीं पा रहे थे, डेरे पर बड़े लोगों से सलाह ली तो कुछ ने डराया "अरे इ बाबू लोगो को भरोसा नहीं है ", तो कुछ ने मौक़ा न गवाने की सलाह दी , डेरे पर सबसे समझदार समझे जाने वाले नंदू को बुलाया गया ,नंदू बड़े बड़े शहरों में घूम चुका था थोड़ी अंग्रेजी भी बोल लेता था...तो फिर तै किया गया नंदू जाएगा मितिया और रंगजी के साथ.

होटल में पहुँच कर तीनों की मानों पलकों ने झपकना छोड़ दिया, महल जैसा , सूत बूट में घुमते साब लोग और परियों जैसी मेंम -साब , मस्त-मलंग सी मितिया को अपने कपड़ों के गंदे होने का एहसास होने लगा और अपने आप में सिमटने लगी,

"इसी होटल का नाम बताया था ना ,तुम लोग गलती तो नहीं कर रहे " नंदू असमंजस में था.

"अरे तुम लोग बाहर क्यों खड़े हो अन्दर आओ " गाडी वाला साब सामने खड़ा मुस्कुर्रा रहा था उस पल के बाद मानो रंग जी और मितिया जैसे मशीनों की तरह चलते गए, सब कुछ सपनो की तरह होता गया, अब उनको सड़कों पर धुल नहीं फाकनी थी, हर शाम होटल में अपना कार्यक्रम देना था .....अब सरस्वती पर लक्ष्मी मेहरबान हो रही थी, डेरे के और लोगों को भी काम मिल गया.

इस सब में मितिया को लगने लगा रंग जी कुछ बदल सा गया है , अब वो उससे थोड़ा दूर रहने लगा है , उसके कंधे पर सर रखे भी तो महीनो हो गए , जब टूरिस्ट लोग मितिया की तस्वीरे लेते और उसकी तारीफ़ करते तो रंग जी ने कदम और पीछे खीच लेता और कही भीड़ में गुम हो जाता.

एक दिन इटेम के बाद मितिया रंगजी को ढूँढने निकली तो देखा एक अंग्रेजन रंगजी के कंधे पर हाँथ रखे खड़ी है, और लिपट लिपट पर तस्वीरे खिचवा रही है, मितिया को मनो साप सूंघ गया, मितिया को मर्दों की कमी नहीं थी पर रंगजी जैसा उसके डेरे में कोई नहीं था , बांका जवान,कोई बुरी आदत नहीं .

उसके आँखों में आंसू की लकीर तैर गई , गुस्से से चेहरा गर्म हो गया, दिल की जलन चेहरे से साफ़ झलक रही थी और शायद जबान से भी निकल आती की रंगजी की निगाह अकेली खड़ी मितिया पर पड़ गई....एक पल में उसे सब समझ में आ गया तीन साल से साथ था मितिया के ..लपक कर उसने मितिया का हाँथ पकड़ लिया ..

मेमसाब दोनों को साथ देखकर एक दम बोली "ऐसे ही खड़े रहो बहुत अछे लग रहे हो दोनों साथ "

एक तरफ टूरिस्ट दोनों की तस्वीरे खीच रहे थे , पर दोनों एक दुसरे का हाँथ धीरे से दबाते हुए अपने मन की बात आँखों ही आँखों में बोल रहे थे ....

अकेले में मितिया धीरे से बोली " लगन करेगा मुझसे ....अब मुझसे अकेले नहीं रहा जाता "

रंग जी ने हस कर कहा "तो फिर तुझे झुलनी (नथ) गडाने के लिए सावन का इंतज़ार नहीं करना पडेगा ...

और मितिया और रंग जी एक दुसरे की बाहों में खो गए

Tuesday, January 12, 2010

Wednesday, January 6, 2010

डर


अचानक मेरी आँख खुलती है,मैं अपने आप को एक अंधरे कमरे में पाती हूँ जहाँ मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा,दिल का बोझ दिमाग पर हावी होने लगा है, दिमाग में सारे समय घडी की सुइयों की तरह कुछ कुछ चलता रहता है ,और इसी सोच में कभी कभी मन की बातें अपने आप जुबां से निकलने लगती है, जो सामने वाले को बडबडाने जैसा लगता है, मुझे इस घुटन से बाहर निकालो प्लीज़........................... मैं अचानक चीख पड़ती हूँ ,


"का भवा गुडिया कौन्हों बुरा सपना देखिन का " निर्मला काकी ने मेरे माथे पर हाँथ फेरते हुए कहा, काकी के झुरियों भरे हाँथ का स्पर्श मुझे दो पल तो सुकून देता है पर , वो हाँथ हटतेही मैं फिर उसी अँधेरे कुएं में डूबता सा महसूस करती हूँ, कई बार अपने भयानक सपनों में मैं मैंने निर्मला काकी को पुकारने की कोशिश भी की पर गले से आवाज़ ही नहीं निकली,

"का भवा लल्ली ", काकी ने लगभग मुझे झिझोड़ते हुए कहा . "अरी सूरज देबता सर अपर आई गए है ,दिन चढ़े सोती ही रहियो का , स्कूल नहीं जाने है का ",कहते हुए उन्होंने खिडकियों के परदे हटा दिए .....मेरे कालेज का आखिरी साल था पर काकी के लिए मैं अभी भी स्कूल में ही थी.

खिडकियों के पार सूर्यदेव अपनी  आभा बिखेर रहे थे, बहुत ही सुहानी सुबह थी ,शायद ये सुबह की ताज़ा किरने और हवा का असर था ,जो मेरे डरावने सपने की स्मृति एक दम से लुप्त हो गई.

बस से कालेज का सफ़र एक घंटे का है मैं अपनी सीट पर बैठ कर वापस अपने ख्यालों में खो गई, रात होते ही मैं एकदम अकेली क्यों हो जाती हूँ मुझे डरावने सपने क्यों घेर लेते है,हे ईश्वर रात आया ही ना करे..........

बचपन से ही अपने आसपास हमेशा काकी को ही पाया मम्मी, पापा अपनी जॉब में बिजी रहे वो कोशिश करके भी मेरे लिए समय नहीं निकाल नहीं पाते,रात को उनकी नींद में व्यवधान ना हो इसलिए मुझे शुरू से अकेले सोने की आदत डाल दी, अपनी गुडिया को पकड़ कर मैं सोने लगी.
मेरी बालपन की बेसुध नींद शायद उस दिन से ही मुझसे दूर हो गई जबसे मैंने अपने कमरे में आधी रात को किसी अजनबी को महसूस किया,अपने कंधे पर किसी के हाँथ का स्पर्श पाकर मैंने आँखे खोली और पहचानना चाहा,पर अँधेरे को चीरता वो साया कही लुप्त हो गया,उसके बाद कई रातों तक मैं सो नहीं पाई,माँ से कहना चाहा पर उन्हें ये मेरा भ्रम लगा  ..उनके पास मेरे लिए समय के अलावा सब कुछ था , अपने कैशोर्य में मैं ..किसी करीबी सहेली ,बड़ी बहन की कमी से गुज़र रही थी जिससे मैं बात कर सकू. मेरे माँ के पास सोने के अनुरोध को मेरा बचपना समझ कर टाल दिया गया...
फिर एक रात वो हुआ जिसने शायद मेरा आत्मविश्वास हमेशा के लिए जगा  दिया रात के अँधेरे में मैंने फिर उसी साए को अपने कमरे में महसूस किया,मैं दम साधे लेती रही मैं अपने डर का चेहरा देखना चाहती  थी,उसके हाँथ मेरे कंधे पर थे और वो मेरे चेहरे की तरफ घूर रहा था,शायद यह निश्चिन्त कर रहा था मैं सो चुकी हूँ,मेरे हाँथ धीरे धीरे टोर्च की तरफ बढ़ रहे थे हो मैंने छुपा कर रखी थी, मैंने टोर्च जला कर अचानक उसके चेहरे पर मारी, और चीखने लगी,मैंने उसका शर्ट पकड़ लिया कुछ ही पलों में माँ और पापा कमरे में आ गए , कमरे  की लाइट जल चुकी थी , मेरा डर कोई भ्रम नहीं था, हमारा ड्राईवर कमरे में सर झुकाए खडा था, और उससे ज्यादा झुका हुआ हुआ सर था मेरे माँ और पापा का..............मेरे चेहरे पर गुस्से,डर और अपमान के भाव एक साथ थे रुंधे गले से मैं कुछ बोलना चाहती थी पर माँ ने मुझे  गले से लगा लिया और मैं रो पड़ी..शायद अब शब्दों की जरूरत नहीं रह गई थी.
कहा अनकहा सबकी समझ में आ चुका था........माँ और  पापा अब मुझे अपने साथ होने का विश्वास दिला रहे है है .
वो रात जा चुकी है उसके बाद कितनी रातें गुजर चुकी है पर मेरे मन के कोने में कहीं एक डर अपना निशाँ छोड़ गया है,जो आज भी मेरे व्यक्तित्व को झिंझोड़ जाता है ......