मैं क्या सोचती हूँ ..दुनिया को कैसे देखती हूँ ..जब कुछ दिल को खुश करता है या ठेस पहुंचाता है बस लिख डालती हूँ ..मेरा ब्लॉग मेरी डायरी है ..जहाँ मैं अपने दिल की बात खुलकर रख पाती हूँ
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Tuesday, December 18, 2012
बस देह भर
पुनरावृति हताशा की एक मौन अपने होने पर एक पीड़ा नारी होने की वही अंतहीन अरण्य रुदन बस देह भर ये अस्तित्व छिद्रान्वेषण पुन: पुन: चरित्र हनन या वस्त्र विमर्श मैं बस विवश बस विवश ...
बस विवश .... आए दिन ये हादसे हो रहे हैं ...जब तक कठोर कानून नहीं बनेंगे और उनका पालन नहीं होगा तब तक शायद ऐसा ही होता रहेगा .... आरोपी छूट जाएंगे .... लड़कियां डर डर कर जीती रहेंगी ।
अपने इस दर्द के साथ यहाँ आकर उसे न्याय दिलाने मे सहायता कीजिये या कहिये हम खुद की सहायता करेंगे यदि ऐसा करेंगे इस लिंक पर जाकर
इस अभियान मे शामिल होने के लिये सबको प्रेरित कीजिए http://www.change.org/petitions/union-home-ministry-delhi-government-set-up-fast-track-courts-to-hear-rape-gangrape-cases#
जो दिल्ली में घटा उसे युं तो किन्हीं शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल है पर आपकी कविता उस दर्द को बखूब दर्शाती है..सुंदर प्रस्तुति। मेरी नई पोस्ट पर स्वागत है।
बस विवश! बस विवश!
ReplyDeleteकितने विवश हैं हम...वितृष्णा होती है इस विवशता से ........अपने आपसे ........पूरी व्यवस्था से .............!!!!!!
ReplyDelete:( :(
ReplyDeleteजारी भाषण,चर्चा और शब्दों का समूह ...असल में पसरा वही मौन.:(:(
ReplyDeleteबस विवश .... आए दिन ये हादसे हो रहे हैं ...जब तक कठोर कानून नहीं बनेंगे और उनका पालन नहीं होगा तब तक शायद ऐसा ही होता रहेगा .... आरोपी छूट जाएंगे .... लड़कियां डर डर कर जीती रहेंगी ।
ReplyDeleteदुखद मार्मिक और कठोर वातावरण
ReplyDeleteकोमल भावो की
ReplyDeleteबेहतरीन.....
:( :(
ReplyDeleteउम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteबहुत कम शब्दों में सम्पूर्ण पीड़ा को अभिव्यक्त किया आपने ...साधुवाद
ReplyDeleteमैं बस विवश
ReplyDeleteबस विवश ... बहुत अच्छे काव्य की ठेरों शुभकामनायें .
गद्दार सारे मस्त है हम विवश हैं,
हम कैद है अपने घर में
मुजरिम घूम रहे है सरेआम शहर में.... चित्र भी सच्चाई बयाँ करता है। :(
मेरी नई कविता आपके इंतज़ार में है: नम मौसम, भीगी जमीं ..
दुखद हाल हैं।
ReplyDeleteएक कटु और मार्मिक सच ।
ReplyDeleteअपने इस दर्द के साथ यहाँ आकर उसे न्याय दिलाने मे सहायता कीजिये या कहिये हम खुद की सहायता करेंगे यदि ऐसा करेंगे इस लिंक पर जाकर
ReplyDeleteइस अभियान मे शामिल होने के लिये सबको प्रेरित कीजिए
http://www.change.org/petitions/union-home-ministry-delhi-government-set-up-fast-track-courts-to-hear-rape-gangrape-cases#
कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं
कैसी इकतरफ़ा विवशता है ये...... :((
ReplyDeleteबिलकुल सही
ReplyDeleteसादर
इस विवशता पर क्रोध आता है, आखिर सब कुछ एक पक्षीय क्यों? कठोर कदम ज़रूरी है.
ReplyDeleteमार्मिक...कोई शब्द नहीं.
ReplyDeleteजो दिल्ली में घटा उसे युं तो किन्हीं शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल है पर आपकी कविता उस दर्द को बखूब दर्शाती है..सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteमेरी नई पोस्ट पर स्वागत है।
हर बार लडाई जीरो से शुरू होती है , घूम फिर कर वही अंतहीन मौन !
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक कविता है आपकी | जिस दिन भी हर आदमी एक बेटी का पिता बन जायेगा उस दिन से लोगो के नजरिये में भी काफी बदलाव आएगा | Talented India News
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