बड़ी
बड़ी इमारतों से गुज़रते हुए ...गमलों में मुहं उठाये नन्हे पौधे अक्सर
रास्ता रोक लेते है ..मनो कह रहे हो पनपने के लिए पूरी ज़मीन नहीं थोड़ी
मिटटी की दरकार है ...हां अगर और बढ़ना है तो अपनी ज़मीन खुद पानी होगी ....
हाइवे पर तेज रफ़्तार गाडी दौडाते हुए ....डिवाइडर पर डटे गुलाबी फूलों से लदे मंझोले कद के शूरवीर जो गर्म काले धुंए के थपेड़े खाकर भी लहलहाते हुए से लगते है,हर लम्हा बिना रुके रात दिन अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए,अपने इस युद्ध के बीच एक नज़र मुझपर भी डालते है "हमसे भी कमज़ोर हो क्या ".. ....
पार्किंग
के कोने में .... सबकी नज़र बचाकर कोई ऊपर आ रहा है पहले बाहें निकली है
हरी नर्म मुलायम ..जैसे बच्चे बिना नाम ,मज़हब के पैदा होते है वैसे ही वो
दो पत्तियां भी अनचीन्ही है ..
ज़मीन
पर बिखरे पीले निराश पत्ते ..जानते थे मौसम के साथ उनका भी यही हश्र होना
है पेड़ों ने भी उनकी विदाई का शोक मनाया कुछ दिन पर ज़िन्दगी रुकी नहीं
..फूट पड़ी मोटे डंठलों में ,कठोरता को भेद कर मखमल से चमकीले पत्ते ...
पीपल
सुलग रहा है ....खिड़की के ठीक सामने पीपल के जुड़वां पेड़ अचानक अपना रूप
बदल के अचंभित कर रहे है ...वे हरे ...भूरे ना वे सुनहले हो उठे है अनूठे
सच में बेहद अनूठे, सुबह उनको निहारना क्योंकि गर्म सुबहों में वे काई के
रंग को लपेट लेंगे और ये स्वर्णिम आभा लुप्त हो जायेगी ...
फूल और प्रेम .... फूल और प्रेम कब एक दुसरे का पर्याय हुए ये तो नहीं जानती पर ये जानती हूँ कुछ तो कोमल सा प्रस्फुटित हो उठता है इन रंगबिरंगे दूतों को देखकर,पिछली रातों में जब हवा बादलों से बिगड़ रही थी ...बादल के दिल से आंसू नहीं पत्थर बरस रहे थे ,मेरे आँगन के उदार पेड़ ने ...एक पीली चादर बिछा दी इंतज़ार की
और
मैं ... इतनी जीवंत चीज़ों में मैं भला निर्जीव कैसे रहूँ ...लड़ते ,जूझते
अपनी ज़मीन तलाशते ,अपने रास्ते बनाते सोने सी चमकते ,जी ही लूंगी अगली बहार
तक ...
प्रकृति से जुड़े बहुत खूबसूरत एहसास ....
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत रचना | प्रकृति को शिशु से तुलना निशब्द कर देती है | आभार |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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बिलकुल......जीना ही होगा....क्यूंकि बहार आने को है..
ReplyDelete<3
बहुत सुन्दर !!!!
अनु
हमने एक जड़ से पेड़ को लटकते देखा है..हमारी आस वही दृश्य बाँध देता है।
ReplyDeleteफूल और प्रेम का बहुत ही याराना सम्बन्ध है,बेहतरीन प्रस्तुति.
ReplyDeleteफ्लिकर में एक तस्वीर महीनों तक पड़ी थी। पटरी है बगल से बिल्कुल मासूम पत्ती उग आई है कोमल, साहसी और सुंदर
ReplyDeleteप्रकृति और जिन्दगी कहाँ अलग हैं एक से संघर्ष दोनों के...
ReplyDeleteबस बड़ते चलो
बहुत सुन्दर लिखा है.
जी लूंगी अपनों बहार अआने तक ...
ReplyDeleteपर ये बहार तो हुड ही तलाशनी होती है ... खींचनी होती है कभी कभी ... कभी खुद से कभी दूसरे से ...
मनुष्य बहुत कुछ आज भी प्रकृति से स्पंदित होता रहता है ०
ReplyDeleteआपकी लेखनी में एक काव्यात्मक आकर्षण है !
अगली आई पोस्ट पर कमेंट करने की व्यव्स्था नहीं है...क्यूं...काबुलीवाले पर?
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