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Friday, May 4, 2012

अधूरी

कुछ अधपढ़ी किताबें ,कुछ अधूरे लिखे ख़त , कुछ बाकी बचे कामों की लिस्ट के साथ आँख बंद करके लेटी मैं ....सोच रही हूँ आज किसी अधूरे सपने को पूरा कर लूं ..पर ये अधूरापन मुझे कभी पूरा होने नहीं देगा ,याद नहीं आता कभी कोई काम अंजाम तक पहुँचाया हो ..किताबों के मुड़े पन्ने इस बात की गवाही देते नज़र आते है के दुबारा उन्हें खोला नहीं गया है, एक पात्र के साथ दूसरा पात्र गड्ड मड्ड,  सब खुला दरबार कभी शरत चन्द्र की कहानियों में शिवानी की नायिकाएं चली आती और बंगाल से एक क्षण में भुवाली पहुंचा देती ...तो प्रेमचंद्र के हीरा मोती ..यहाँ वहा टहलते दिखाई पड़ते ...इन दिवास्वप्नो में कभी किसी नाटक का कोई पात्र अपने मंगलसूत्र की कसम खाता लगता ...और अचानक मेरा माथा झन्ना उठता .
मैं ऊन की लच्छी सी उलझ गई हूँ सिरा ना-मालूम कहाँ है ..और ना इतना संयम के इत्मीनान से सिरा खोज लूं ,
सच तो कहता था वो , ये अधूरापन ,confusion तुम्हारी परेशानी नहीं है तुम्हारा शौक है ,तुम्हे पसंद है ऐसे ही रहना ..तुमको सीधा सहज कुछ भी भाता ही कहाँ है ...तुम चीज़ों को अधूरा इसलिए छोडती हो के उसमें उलझी रहो ..और साथ में जो हो उसे भी उलझा लो के वो तुम्हारे अलावा कुछ ना सोच पाए .छोड़कर चला गया वो उसे सब पूरा चाहिए था ,मैं मेरा प्यार मेरा समय और मेरा समर्पण ...पर मैं राज़ी नहीं हुई इतनी आसानी से अपना अधूरापन छोड़ने के लिए बस वो चला गया मुझे इस अधूरेपन के साथ , पहली बार उसके जाने के बाद महसूस हुआ शायद वही है जो मेरी इस अंतहीन यात्रा को एक सुखद अंत दे सकता है ...उसके साथ मैं पूरी होना चाहती हूँ , मोबाइल में नंबर है ..पर उंगलियाँ कई बार अधूरा नंबर मिलाकर रुक चुकी है ..... कितना बिगड़ के पूछा था उसने , क्या तुम नहीं चाहती मैं तुम्हारे साथ रहूँ ...उफ़ कितने मासूम से लगे थे तुम और दिल किया तुम्हे गले लगा लूं ...पर ठहर गई  आज अचानक  मेरे भीतर उभर आता है तुम्हारा अक्स मैं किसी जादू से बंधी ....अधूरे ख़त फाड़ती हूँ ,अधपढ़ी  किताबें शेल्फ में लगाती हूँ , इस बार नंबर पूरा मिलाती हूँ .. सुनो मुझसे मिल सकते हो अभी .... बस दस मिनट में ....

Thursday, March 17, 2011

होली ....

होली ..हर उम्र में होली का अपना मज़ा होता है ..मन फागुन की बयार में बौराने लगता है आज भी बौइरा रही हूँ पर तुम पता नहीं कहा हो ..शायद कंधे पर लैपटॉप डाले ऑफिस की तरफ जा रहे होगे ...या अपनी शॉप पर बैठे होगे ..तुम कहाँ हो और आज क्या कर रहे हो मुझे कुछ भी नहीं पता पर हर होली  दिल में टीस जरूर दे जाती है ..... मेरी भटकी आँखों को कई बार ... निलय ने पकड़ा है  "किसे ढूंढ रही हो सपना " और मैं मज़ाक में कहती हूँ "जब तुम सामने हो तो मुझे किसी को ढूँढने की जरूरत नहीं ....
आज बरसो बाद सिगरेट पीने की इच्छा हो रही है ..मन कर रहा है दो कश भरु और और मुह से धुएं के साथ अपने अन्दर से तुम्हे भी बाहर निकाल दूं .. तुम्हारी यादें कसैली सी लगने लगी है ..तुमने जब हांथों में रंग लेकर मेरी तरफ पहली बार शरारत से देखा था तो सच मानो मेरे गाल भी उतने ही बेताब थे जितने तुम्हारे हाँथ ...और मैं बिलकुल नहीं चाहती थी कोई मेरे गालों पर तुमसे पहले गुलाल लगाये ...सारी रात इसी इंतज़ार में थी ...तुम कौन सा रंग लगाओगे ... सुर्ख लाल ..जो मैं तुम्हारे हांथो से अपनी मांग में देखना चाहती  थी ,चमकीला  हरा जो शायद मेरी कलाइयों में चूड़ी बन खनकेगा ..पीला जो हांथो में हल्दी बन सजेगा या फिर रुपहला मेरे सपनों की तरह.
तुम जब मेरी ज़िन्दगी में शामिल होने लगे थे तब बहुत कच्ची उम्र में थी मैं ..अल्हड पर तुमको देखते ही मानो किस अनुशासन से बंध जाती थी ..कितनी बार सोचती तुम कुछ कहो ..पर नहीं इसी अबोले पलो के बीच दिवाली से होली आ गई ....और मेरे मन में आकर्षण के बीज में अंकुर फूटने लगे ..कभी कभी जब तुम्हे सोचती तो शारीर से ना जाने कैसी सोंधी सी महक उठती और मैं कस्तूरी मृग की तरह बौरा उठती .... सब जादू सा लगता ...सपने सा ..सपना का सपना ...
तुम जब मेरी तरफ रंग लगाने के लिए बढे ..तो मैं सकुचा रही थी पर ..ये अनुभव बिलकुल वैसा नहीं था ...मेरे कोमल सपने एक पल में कुचल गए ...तुम्हारे हांथो में काला रंग था जो तुम बड़ी कठोरता से मेरे मुह पर मेरे गले पर लगा रहे थे ..और तुम्हारे दोस्तों की आवाजें "छोड़ना मत " ,"मौके का फायदा उठा यार ", "तेरी तो सेटिंग है "... कानो में पिघले सीसे की तरह उतर रहे थे मैं अपने को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी ..बीच बीच में उठती ..शराब की तीव्र गंध में जो कस्तूरी  खोई वो आज तक नहीं  मिली ....
उस होली ने छोड़ा मुह पर काला रंग जिसको कितना उतारने की कोशिश की पर आज भी ..कहीं मन के कोने में रह गया है ..जो हर होली रंगों को देखते ही पूरे अस्तित्व को अँधेरे में डाल देता है ........
आज फिर होली है हर तरफ रंग है निलय आने जाने वालो को बोल रहे है सपना को रंग पसंद नहीं है ..और गुलाल के टिके लगा रहे है ...निलय के मनपसंद त्यौहार पर मेरा ना होना उसे मायूस तो करता है पर कभी भी उसने जबरदस्ती नहीं की ..जब भी वो नए शादीशुदा जोड़ो को होली में मस्ती करते देखता तो उसकी उम्मीद भरी आँखे मेरी तरफ उठ जाती ..ये हमारी शादी के बाद दूसरी होली है ..मैं निलय का चेहरा देख रही हूँ ...कितना प्यार करता है मुझे ...कितना सुरक्षित महसूस करती हूँ उसकी बाहों में ....और मैं किस के लिए  लिए निलय को तकलीफ दे रही हूँ जिससे मेरा कोई रिश्ता भी नहीं है 
अचानक सारी कालिमा ख़त्म होने लगती है और थाली में सजे रंग मानो आवाज़ देते है आओ और सजा लो हमें अपनी ज़िन्दगी में ..मेरे हांथो में गुलाबी रंग लिए मैं निलय पर टूट पड़ती हूँ और बिना उसे संभलने का मौक़ा दिए रंगों में सराबोर कर डालती  हूँ ... निलय की आँखों में कई रंग तैर जाते है ..भौचक्का .... विस्मय ...आश्चर्य .. शरारत ..फिर...  कितनी देर हम दोनों होली खेलते  रहे याद नहीं....इस होली की यादें ऐसी बनी की अब शायद कोई और होली कभी याद ना आये .....



--
Sonal Rastogi

Saturday, April 3, 2010

अजीब लड़की (भाग १)

वो मुझे हमेशा बहुत अजीब सी लगती..पता नहीं क्यों कुछ मरदाना सा चेहरा लंबा कद चौड़े कंधे , नारीसुलभ कोमलता का पूरी तरह अभाव ,बोली अभी अजीब सी मानो आवाज़ को खींच रही हो, होस्टल में सबके साथ घुलती मिलती पर मुझे वो अपनापन सहज नहीं लगता, यहाँ तक उसका छूना मुझे किसी पुरुष के स्पर्श की याद दिलाता और मैं और विचलित हो उठती .

मैं अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहती, वो होस्टल की लड़कियों को अपनी कहानी सुनाती ..उसकी कहानी किसी फिल्म की कहानी की तरह लगती बचपन में पिता गुज़र गए माँ ने दूसरी शादी की नये पिता ने प्यार नहीं दिया, अब इस हॉस्टल में उसके कुछ अपने से लगने वाले लोग मिले है,
कालेज बंद होने पर २ माह के लिए होस्टल लगभग खाली हो गया..
एक हफ्ता घर पर बिताने के बाद जब मैं होस्टल वापस आई तो मेरे साइड वाले पलंग पर मधु को पाया , मधु अजीब लड़की का नाम मधु था, मेरी रूममेट निधि अपना बिस्तर उसको सौंप गई थी ,

अकेले सुनसान होस्टल में रहने की हिम्मत ना तो उसमे थी और ना मुझमें ..तो मजबूरी में मुस्कुरा कर समझोता कर लिया..वैसे भी सारा दिन प्रतियोगिताओं की तैयारी में बीतना था ..अपने आप को मन ही मन तैयार कर लिया उसके साथ रहने के लिए ....

क्रमश:

Tuesday, March 23, 2010

माफ़ कर दे कृति

कृति अपने हाँथ गौर से देख रही थी आँखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे ,कोई तो बता दे कौन सी है किस्मत की रेखा ...उसने तो नहीं खिची तो फिर काकी क्यों कोसती है उसको, कृति के माँ पिताजी एक दुर्घटना में नहीं रहे थे जब वो सिर्फ तीन साल की थी ,इश्वर का आशीर्वाद था या कोई अभिशाप इतनी भयानक दुर्घटना के बाद भी वह बच गई. उसके काका अपने साथ ले आये,शुरू में तो काकी का व्यवहार अच्छा था ममता भी मिली पर समय और काकी के परिवार के बढने के साथ काकी ममता बाटने में कृपण हो गई...


उसे किताबे समझ में कम आती थी आज परीक्षा का परिणाम आने के बाद घर में कोहराम मचा था , पांचवी कक्षा में फेल हुई थी, काकी की आवाज़ कानो में पिघले शीशे की तरह उतर रही थी " पता नहीं हाँथ में कौन सी रेखा लेकर जन्मी है ,सूरत शकल तो ऊपर वाला देता है इसके दिमाग में भी गोबर भरा है ,सब तो यही कहेंगे बिना माँ बाप की लड़की को ठीक से नहीं रखा ...साल की फीस गई ,कापी पेन्सिल का खर्चा अलग ...अगर पढ़ लिख जाती तो कही ब्याह कर छुटी पाए बेपढ़ी को कौन ब्याहेगा आज के ज़माने में "

काका कम बोलते थे पर उनकी आँखों में रोष साफ़ दिख रहा था..

कृति कोने में खड़ी अपने पैर के अंगूठे से ज़मीन पर पता नहीं कौन सी आड़ी तिरछी रेखाए खीच रही थी,कितना तो पढ़ा था पर लिख नहीं पाई परीक्षा में हाय भगवान् क्या करूँ .

शाम को दूध पीने के लिए काकी कृति को ढूँढने लगी याद आया लड़की ने तो स्कूल से आकर कुछ खाया भी नहीं है..आवाज़ लगे पर कृति का जवाब नहीं आया सारे कमरे देख डाले कृति कही नहीं थी

किसी अनिष्ट की आशंका से काकी का कलेजा मुह को आ गया" कुछ कर करा ना लिया हो ,मुझे भी इतना नहीं डांटना चाहिए था बच्चो के आत्महत्या के समाचार आँखों के आगे घूमने लगे, पढ़ाई में कमजोर है पर बेचारी गौ की तरह शांत है,बाकी सब तो जल्दी सीख लेती है,एक मैं भी कहाँ ध्यान देती हूँ उसकी पढ़ाई पे , एक tution लगा दूं तो सब ठीक हो जाए ...ढूंढते हुए ना जाने कितने देवी देवता मान डाले ...कृत को खोने के एहसास से काकी की ममता पर पड़ी धूल मानो हट गई तीन साल की मासूम कृति की छवि आँखों के आगे तैर गई, स्वर्गवासी जेठानी मनो पूछ रही हो मेरी छोटी बिटिया का ध्यान नहीं रख पाई...

सारा घर देख लिया था पर कही नहीं थी कृति अचानक ध्यान आया छत तो छुट गई...दौड़ते हाफ्ते दुमंजिल चढ़ गई..कोने में कृति ज़मीन पर पड़ी थी डरते हुए उसको गोद में उठाया,गलों पर आंसुओं की लकीरे सूख गई थी रोते रोते भूखी प्यासी सो गई थी ...

काकी ने ने गले से लगाया और आंसू फूट पड़े कृति ने आँखे खोली अपनी हथेली काकी की और बढ़ा दी पेन से गहरी लकीर खिची हुई थी कृति बोली उसके आँखों में अजीब सी चमक थी

"काकी मैंने किस्मत की रेखा बना ली है ठीक है ना अब मैं कभी फेल नहीं होउंगी "

काकी ने उसे जोर से गले लगाकर बोला "बेटा तू नहीं तेरी काकी फेल हुई है , माफ़ कर दे "

Monday, September 21, 2009

उसरी


उसरी ,
रसोई से बर्तनों की पटकने की आवाजें तेज हो गई थीं और निमिषा बिना इन
आवाजों पर ध्यान दिए अपनी सिलाई मशीन पर लगी हुई थीं पड़ोस की शीला की
शादी थी उसकी सारी साडी की फाल और चोली सिलने का काम निमिषा को मिला था
,मशीन चलाते चलाते प्यास का एहसास हुआ गला कुछ सूखा सा लग रहा था ,निगाह
उठा कर देखा तो घडी में बारह बजने को थे ,
बच्चों थी स्कूल से आने का समय हो चला था, पानी पीने को रसोई में फ्रीज
खोला तो लगा पीठ पर दो निगाहें चुभती हुई सी महसूस हुई पलट कर देखा
जेठानी का ध्यान रोटी बनाने पर कम उसपर ज्यादा था , वो फिर उनकी परवाह
किये बिना वापस मशीन पर आ गई, मशीन थे पहिये थे  साथ उसका मन भी घूमने लगा
इक्कीस  साल पहले ....................................
ढोल ताशों थी बीच जब वो दुल्हन बन कर आई थी आज भी एक एक पल उसके सामने
फिल्म की रील की तरह घूम जाता है चारो  तरफ मचता शोर ,रिश्तेदारों का जमघट
हर कोई नई दुल्हन की अगवानी करने को बेताब ..."अरे नहीं बहुरिया को पहले
मंदिर ले गए या नहीं", नन्नू की अम्मा रोली टिके की थाली तो ला ", अनाज
का कलश देहरी पर रख ,
सारी रस्मे वो मशीन की तरह निभाती चली गई,कम से कम बीस लोगों के तो पैर
छुए होंगे और ढेरों आशीष पाए,
उसको मुहदिखाई से पहले थोडी देर आराम करने के लिए कमरे में बिठा
दिया,घूघट की ओट से उसने अपनी ससुराल देखने की कोशिश की , पीले रंग से
नया पुता हुआ कमरा पूरे कमरे में लगे आदमकद शीशे, सामने  दीवार पर राधा
कृष्ण की जुगल तस्वीर कुल मिला कर कमरे को बहुत सुन्दर बना रही थी , कोने
में सिंगार की मेज रखी थी जिसपर नए फैशन का  सिंगार का सारा सामान रखा
था,
निमिषा को तो ये सब सपने जैसा लग रहा था, चार बहिन दो भाइयों का बड़ा
परिवार,निमिषा के पिता सरकारी नौकरी में थे अगर बहुत वैभव नहीं था तो
खाने पीने की कोई कमी भी नहीं थी ,
सभी बच्चों की पढाई पर पूरा ध्यान दिया था , निमिषा शुरू से पढाई में
ज्यादा अच्छी नहीं थी पर घर के काम काज में उसकी सुघड़ता देखते बनती थी ,
चाहें खाना बनाना हो ,सिलाई कढाई हो या बचे हुए सामान से कुछ बनाना उसके
शौक को देखते हुए उसकी उसे हर गर्मी की छुटियों में हॉबी क्लास भेज देती
थी, पांच भाई बहिन में तीसरा नंबर था निमिषा का, उसके हाँथ ने स्वाद की
वजह से सारे उसे अन्नपूर्णा कहते थे,
उसके इसी हुनर की वजह से मांग कर रिश्ता हुआ था,
निमिषा की जेठानी उसकी दीदी की चचेरी ननद थी जो उसके बनाये हुए मटर पनीर
,और रसगुल्लों के स्वाद में उलझ कर रह गई थी और जाते ही अपने लाडले देवर
नितिन के लिए सरकारी बाबू की बिटिया का हाँथ मांग लिया
अँधा क्या चाहें दो आँखे घर बैठे जब इतने अच्छे परिवार का रिश्ता आया तो
मन करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता उँचा कुल , पढ़ा लिखा लड़का , खाता 
पीता परिवार बिना चप्पल घिसे बिटिया बिदा करने का सौभाग्य मिल रहा था,
पिता की ख़ुशी का ठिकाना न था तो माँ  मंदिर में दिया जलाने और इकीस रूपये
का प्रसाद चढाने  दौड़ पड़ी ,लड़के वालों की कोई मांग नहीं थी पर मिश्रा जी
ने अपने सामर्थ्य के अनुसार बिटिया को दे दिवा कर विदा किया,
आजसे निमिशा की नयी ज़िन्दगी शुरू हो रही थी नया घर नए लोग कुछ डर और कुछ
शर्म से गठरी बनी कमरे में बैठी थी , सारी रात शादी की रस्मों में बैठे
बैठे कमर अकड़ गई थी , जरा सा लेटने को मिल जाता तो आराम मिल जाता, पर हर
आहट पर चौंक कर निगाह दरवाजे पर पहुँच जाती ....


तभी दरवाजे से जिठानी सीमा मुस्कुराती हुई आई साफ़ गेंहुआ रंग ,भरा हुआ शरीर काजल लगी बड़ी बड़ी आँखें सलीके से किया हुआ सिंगार ,सुर्ख लाल रंग की बनारसी साडी के साथ बड़ी सी बिंदी लगाए बिलकुल ठकुरानी सी लग रही थी , उनके वयक्तिव से रईसी की ठसक जाहिर हो रही थी, आखिर थी भी तो कानपूर के मशहूर वकील इश्वर्सरन की एकलौती बेटी.
निमिषा को अपने साथ लेकर बाकी की रस्में निपटाने के लिए मुहँदिखाई शुरू हुई निमिषा का घूंघट उठाया गया , यूँ तो निमिषा देखने में सुन्दर थी आमकी फंकों की तरह कटीली आँखें, नुकीली नाक जिसके नीचे पतले पतले गुलाबी होंठ, कमर तक झूलती नागिन जैसी चोटी...बस रंग थोडा गहरा सा था पर चेहरे का भोलापन देखने वालों की निगाह को एक बार रोक ही लेता सारी रस्मे पूरी होते होते ग्यारह बज गए नींद के मारे बुरा हाल हो गया, पता नहीं कब बैठे बैठे निमिषा की आँख लग गई वो तो सोती ही रह जाती अगर जिठानी का बेटा उसको आकर जगाता नहीं , तीन साल का छोटा सा प्यारा सा पिंटू रबड़ के गुड्डे जैसा ,निमिषा का मन किया उसे गोद में ले ले तभी सब उसे कमरे में ले गए.
शादी की शुरुवात का एक महीना तो जैसे सपने की तरह गुजर गया नितिन के साथ कुल्लू -मनाली की वादियों में घुमते एक दुसरे के साथ को, स्पर्श को महसूस करते हुए , लगा बस अब ज़िन्दगी ऐसी ही रहे कुछ ना बदले पर ऐसा होता ही कहाँ है. हनीमून से वापस आने पर सब बदल चुका था, सारे रिश्तेदार जा चुके थें, नितिन भी ऑफिस जाने लगा, पिंटू स्कूल घर में अब बस निमिषा और उसकी जेठानी,
निमिषा तो शुरू से ही घर के कामों में होशियार थी सो घर क रूटीन को समझने में ज्यादा समय नहीं लगा,किसको खाने में क्या पसंद है मिर्च मसाले कैसे पड़ते है बहुत जल्दी सीख गई , उसके हाँथ का खाना सबकी जबान पर चढ़ गया सब तारीफ़ कर कर के खाते थे , जिठानी ने बाहर का काम संभाल लिया और रसोई क ज़िम्मेदारी निमिषा पर आ गई, घर पर लक्ष्मी जी की कृपा थी ही, सबको सबके मन का खिला कर निमिषा का मन खुश हो जाता, और नितिन जब तारीफ़ की नज़रों से देखता तो वो उसे लगता की दुनिया की सारी खुशियाँ मिल गई, तीन साल में दो प्यारे- प्यारे बच्चों की माँ बन गई, सब बढिया चल रहा था
पर समय बदलते देर नहीं लगती , कुछ महीनों से जेठ जी रात को देर से आने लगे थे उनको ताश खेलने की आदत लग गई थी ...शुरुवात मजे के लिए हुई तो लत में बदल गई ,नितिन ने बहुत कोशिश की पर हारा हुआ जुआरी अपनी हर रात की हार को सुबह जीत में बदलना चाहता है ,
वो लक्ष्मी जो घर में धन धान्य बरसा रही थी आज ताश के पत्तों के साथ घर से बाहर जाने लगी ,
घर के खर्चों के लिए भी हाँथ तंग होने लगा , दाल में घी कम हो गया ,दो की बजाय एक सब्जी और दही से काम चलाया जाने लगा ,
नौकर चाकर भी निकाल दिए गए जिन खर्चों का कभी हिसाब भी नहीं होता था अब एक -एक पैसे का खर्च भी फिजूल लगने लगा
निमिषा के जिम्मे घर के काम बढ़ने लगे रसोई ,बर्तन ,घर की सफाई ...साथ में बच्चों को पढाना, जिठानी बड़े घर की बेटी थी सो जरा सा काम करते ही उनके हाथ में दर्द होने लगता था, निमिषा ने जब धीरे से कुछ कहना चाहा तो जिठानी बीच आँगन में बिफर पड़ी , मेरे परिवार की दो रोटियाँ सेकनी तुमको भारी पड़ती है अपने परिवार का मैं खुद संभाल लूंगी... रुपयों की तंगी ने दिलों को भी तंग कर दिया था, कुछ ख़ास नहीं बदला अभी भी निमिषा सब संभाल रही थी, बस जेठानी अपना और अपने बच्चों का खाना लगा कर शाम छह बजे से ही कमरे में ले जाती,फ़िर बाहर  ना निकलती
जब निमिषा नितिन अपने परवार का खाना लगाती तो कभी सब्जी कम पड़ जाती तो कभी आलू की रसेदार सब्जी में आलू कम होते, जेठ रात को चाहें दो बजे आये उनका खाना लगाना निमिषा की ज़िम्मेदारी थी क्योंकि वो उसके हाँथ का खाना खाते थे...
बढती  ज़िम्मेदारी और अपने परिवार को समय ना दे पाने की कसक से निमिषा चिड़चिडी सी हो गई थी , नितिन भी बढ़ते खर्च और घटी आमदनी से परेशान रहने लगे थे.
निमिषा को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था.
एक दिन उसकी सहेली ने बातों ही बातों में उससे अपनी नई साड़ी की फाल लगाने और चोली सिलने को कहा , दरजी ने समय पर देने से मन कर दिया ,समय ना होने पर भी अपनी सहेली कंचन को निमिषा मना नहीं कर पाई, रात को एक बजे तक बैठ कर उसका काम पूरा करके दिया,
अगली सुबह कंचन जब साड़ी लेने आई तो दंग रह गई "निमिषा तेरे हाँथ में तो जादू है कितनी अच्छी फिटिंग दी है, बहुत सफाई है तेरे हाँथ में" मन करते करते भी हाँथ में अस्सी रूपये रख गई बोली दरजी को भी तो देती ना और ये तो तेरी मेहनत के है,
कंचन ने उससे फ़ोन पर कहा मेरी किट्टी की सहेलियां भी तुमसे कपडे सिलवाना चाहती है ,निमिषा मन ही मन में खुश तो हुई पर बोली घर के कामों से समय ही नहीं मिलता,कैसे करुँगी ,कंचन बोली घर बैठे काम आ रहा है और तू मना कर रही है सोच कर जवाब दे कोई जल्दी नहीं है,
रात को नितिन से निमिषा ने सारी बात बताई, और अपनी परेशानी भी .....नितिन बोला घर में काम मिल रहा है इससे अच्छी तो कोई बात हो नहीं सकती अपनी पैसों की परेशानी भी कुछ कम हो जायेगी, चलों मैं सुबह बड़े भैया से बात करूँगा.

बड़े भैया को भी अपनी गलती का एहसास होने लगा था घर की गिरती हालत ने उनकी आँखें खोल दी थी नितिन की मदद से वो अपनी जुए की लत से छुटकारा पाने की कोशिश कर रहे थे .बड़े भैया को भी इसमें कोई बुराई नहीं दिखाई दी घर के कामों के लिए भैया ने कहा तुम दोनों जेठानी देवरानी अपनी अपनी एक एक दिन की उसरी (ड्यूटी ) बाँध लो, घर में अलग से आमदनी आएगी तो अच्छा ही रहेगा, इस सारी बातचीत को जेठानी चुपचाप सुनती रही उनके चेहरे पर इतनी देर में कितने रंग आये और चले गए , बीस सालों में जिसको थोडा काम करने की आदत हो उसपर पूरे दिन का काम आजाये तो उसके पैरो के नीचे से जमीन निकल ही जाती है, उसने तर्क करने की बहुत कोशिश की " ऐसे काम थोडी चलता है , एक कपडा भी खराब हुआ तो नाम खराब हो जाएगा , कौन काम देगा , बाज़ार में क्या दर्जी मर गए है ,बड़े भैया अपनी अर्धांगनी की बेचैनी समझ गए और बोले मुझे जो फैसला करना था वो कर दिया, आज से बल्कि अभी से तुम दोनों हफ्ते के दिन बाँट लो .
निमिषा को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई उसने कंचन को फ़ोन कर हामी भर दी , जेठानी ने बीस साल बाद रसोई में कदम रखा तो मसाले दालें ढूँढने में आधा घंटा लग गया , निमिषा के आने के बाद रसोई में जाने की जरूरत ही नहीं रही थी, जैसे तैसे खाना बनाया तो उसमे स्वाद नदारद ना नमक का अंदाज न हल्दी का... एक दो बार निमिषा का मन हुआ जा कर मदद करे पर बीस साल बाद मिली आज़ादी को वो खोना नहीं चाहती थी,
कंचन की मदद से निमिषा का काम चल निकला कपडे सिलवाने वालों की और सिलाई सिखने वालों की लाइन लग गई, काज बटन और बखिया का काम उसने पड़ोस की जरूरतमंद राधा को दे दिया,
बच्चों के साथ समय मिलने लगा घर में अतिरिक्त आमदनी भी आने लगी , नितिन भी खुश थे .
अब इतवार को वो बच्चों को घुमाने जाने लगी बस जो खुश नहीं थी वो थी उसकी जेठानी ........
आज एक साल पूरा हो गया निमिषा को काम करते हुए, अब जा कर ज़िन्दगी ढर्रे पर आई है, अब कोई भी सबको तो खुश नहीं रख सकता ये सोच कर निमिषा के होंठों पर मुस्कराहट फ़ैल गई और संतोष के भाव आ गए........
रसोई में बर्तन पटकने की आवाजें और तेज़ हो गई



सोनल रस्तोगी ०९-जून-२००९