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Wednesday, October 9, 2013

बेतरतीब मैं ( नौ अक्टूबर )

बेतरतीब मैं ( नौ अक्टूबर )
ऊपर वाला हमेशा एक के बाद नई कसौटी कर कस रहा है, एक दम खरा सोना बनाकर मानेगा जितनी चोट पड़ेगी उतना खूबसूरत आभूषण बनकर निकलूंगी, हर दर्द के साथ बेहद लचीली बन रही हूँ ,बहुत पहले सुनी कहानी याद आ गई
सोने ने लोहे से पूछा तुम एक चोट में टूट जाते हो और मैं हज़ार वार भी झेल जाता हूँ , लोहा हस कर बोला बाहर वालो के वार झेलना कठिन है पर मुझपर वार करने वाले मेरे अपने होते है अपनों का दगा मुझे तोड़ देता है 
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बंद अँधेरे कमरे में आधी रात अगर आँख खुले तो आँखे रौशनी की किरण ढूंढती है ,बदहवासी में आँखे कमरे के हर कोने में रौशनी की उम्मीद में दौड़ जाती है, दिल को यकीन दिलाती है कोशिश करो कहीं ना कहीं रौशनी होगीही, आखिरी उम्मीद सुबह सूरज के निकलने की होती है ,
मेरे कमरे में अभी सूरज की किरण पहुंची नहीं है
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नीला आसमान और भूरी ज़मीन इसके बीच हवा और मैं ,मेरे भीतर उमड़ते ढेर तूफ़ान आँखों को मूँदकर होंठों को कसके भींचकर ,भीतर ही भीतर भिड जाती हूँ कौन जीता इसका फैसला अभी बाकी है
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पुराने से नए की तरफ का सफ़र है ज़िन्दगी ,पुराने घर से नया घर ,पुराने रिश्तों से नए रिश्ते ,पुरानी पड़ती देह से नयी देह की ओर, फिर दुःख क्यों ,शायद ये मोह है जो आखिरी रेशे तक बांधता है ...

11 comments:

  1. बहुत हुई बेतरतीबी........अब ज़रा खुद को संवार लो....

    सस्नेह
    अनु

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  2. "अपनों का दगा मुझे तोड़ देता है“

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  3. सब अच्छा होगा , आप अच्छे हो तो अच्छा ही होना है ।

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  4. गहरी और भावपूर्ण बातें काही आपने |

    मेरी नई रचना :- मेरी चाहत

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  5. सोच तो नहीं जा पाती उम्र के साथ ,,, तःती है जीवन भर आगे से पीछे तक ...
    रिश्ते के तार तभी तो जुड़े रहते हैं ...

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  6. bahut achhe
    aap sabhi ka mere blog par swagat hai
    iwillrocknow.blogspot.in

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  7. nice.......bahut bhav lee hui rachna..............

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