शहर सुलग रहे हैं
गाँव सिसक रहे हैं
सड़कों पे खून फैला
जंगल दहक रहे है
हर हाँथ लिए ख़ंजर
बदहवास फिर रहे है
वहशत हँस रही है
जो इंसान मर रहे हैं
किसके लिए जाने
महल ये सज रहे हैं
गली गली वीराना
शमशान खुल रहे है
ये कौन सा मौसम
आया है इस चमन में
पेड़ों पर फल नहीं हैं
इंसान लटक रहे है
गाँव सिसक रहे हैं
सड़कों पे खून फैला
जंगल दहक रहे है
हर हाँथ लिए ख़ंजर
बदहवास फिर रहे है
वहशत हँस रही है
जो इंसान मर रहे हैं
किसके लिए जाने
महल ये सज रहे हैं
गली गली वीराना
शमशान खुल रहे है
ये कौन सा मौसम
आया है इस चमन में
पेड़ों पर फल नहीं हैं
इंसान लटक रहे है
बहुत खूब
ReplyDelete"पेडों पर फल नहीं, इंसान लटक रहे हैं"
भेदक पंक्ति
सूंदर मुखरित भाव । यूँ ही लिखते रहिये । दाद....
ReplyDeleteअवलोकन हेतु पधारियेगा.....
तेरी जुल्फों से नज़र मुझसे हटाई न गई,
नम आँखों से पलक मुझसे गिराई न गई |
contd......
http://www.harashmahajan.blogspot.in/2015/04/blog-post_28.html
हृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार भावसंयोजन .आपको बधाई
ReplyDeleteसच कहा, इंसानियत ही सिसक रही है। हर तरफ आग ही आग लगी दिखती है ...
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