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Tuesday, May 12, 2015

गाँव सिसक रहे हैं

शहर सुलग रहे हैं
गाँव सिसक रहे हैं
सड़कों पे खून फैला
जंगल दहक रहे है

हर हाँथ लिए ख़ंजर
बदहवास फिर रहे है
वहशत हँस रही है
जो इंसान मर रहे हैं

किसके लिए जाने
महल ये सज रहे हैं
गली गली वीराना
शमशान खुल रहे है

ये कौन सा मौसम
आया है इस चमन में
पेड़ों पर फल नहीं हैं
इंसान लटक रहे है


4 comments:

  1. बहुत खूब
    "पेडों पर फल नहीं, इंसान लटक रहे हैं"
    भेदक पंक्ति

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  2. सूंदर मुखरित भाव । यूँ ही लिखते रहिये । दाद....
    अवलोकन हेतु पधारियेगा.....

    तेरी जुल्फों से नज़र मुझसे हटाई न गई,
    नम आँखों से पलक मुझसे गिराई न गई |

    contd......
    http://www.harashmahajan.blogspot.in/2015/04/blog-post_28.html

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  3. हृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार भावसंयोजन .आपको बधाई

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  4. सच कहा, इंसानियत ही सिसक रही है। हर तरफ आग ही आग लगी दिखती है ...

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