१।
सामने से आती एक शक्ल बेहद पहचानी सी लगी ,वही है क्या ? अरे हाँ वही तो है
आठ साल पहले सादा से प्रिंटेड सूट में देखा चेहरा आज किसी महंगे ब्रांड के वन पीस ड्रेस में कुछ अज़नबी सा लगा ,आँखों में पहचान का भाव उभरा और पानी के बुलबुले सा फुट गया और रह गया नीरव स्थिर अज़नबीपन।
या तो उसने पहचाना नहीं या … जाने दो
वो पहचाना अज़नबी साया पास से गुज़र चुका था अपने साथ खुशबू की लकीर छोड़ते हुए, इसको परफ्यूम की जरूरत कब से पड़ने लगी, छत की मुंडेर पर चाहे अनचाहे करीब आते हुए कितनी बार एक मादक सुगंध को जिया था कुछ रजनीगंधा जैसी शायद।
उसके हाँथ आज भी थामने पर पसीजते होंगे क्या सोचते ही होंठों पर मुस्कान तैर गई
पिछले आठ सालों में ज़िन्दगी की दौड़ दौड़ते हुए कभी एहसास ही नहीं हुआ जिनके साथ जीने मरने की कसमें खाई थी आज उनका ख्याल भी नहीं आता
२।
होटल के कमरें में सिगरेट फूंकते हुए निगाह दरवाजे की तरफ लगी है ,भागती ज़िन्दगी में जब कुछ जरूरते जागती हैं तो खाने से बिस्तर तक होम डिलीवरी के ऑप्शन मिल जाते हैं ऐसी ही ऑप्शन पिछले कुछ सालों कमरे में आते जाते रहे है।
अब एक ज़रुरत के लिए ज़िन्दगी भर के बंधन तो नहीं पाल सकता ना
दरवाजा खुलते ही एक खुशबू का झोंका अपनी गर्माहट से भर देता है ,अचानक ये खुशबू खींचकर गली के मोड़ पर खड़ा कर देती है दिल की धड़कने तेज हो रही है , मेकअप की परतों में लिपटा अजनबी चेहरा अपना सा क्यों लग रहा है ,
क्या ये वो है ,काश वो ना हो , उसको अपने साथ चाहा था एक ज़माने में पर
आज इस कमरे में इस बिस्तर पर तो नहीं, उसके करीब आते ही एक ठंडी सांस राहत की भरता हूँ , वो नहीं है।
३।
उस दिन के बाद होटल के कमरें में जा नहीं पाया हूँ ,एक डर भीतर बैठ गया है , उस दिन अगर वो होती तो ,इस बार नहीं थी पर अगली बार हुई तब ,ऐसे कितने चेहरे कितने रिश्ते बनाता बिगाड़ता आया हूँ , कुछ तो बीता है भीतर ही भीतर जिसने आत्मा जैसा कुछ जगा दिया है।
भला -बुरा ,पाप पुण्य कानो में बज रहे है.
हरिद्वार में गंगा किनारे बैठे हुए पानी के शोर में कुछ चीखे कुछ रुदन जैसे सुनाई दे रहे हैं , मेरा अहम उसकी मिन्नतें , मेरी लापरवाही उसकी हताशा ,या कितने मज़बूर मुस्कुराते चेहरे।
पैर पानी में जाते ही दिमाग और दिल में द्वंद शुरू हो जाता है , मैं आज जो हूँ ऐसा तो नहीं था ,कब मैं बदलता गया।
बचपन की मासूमियत से कैशोर्य के अल्हडपन से युवावस्था के जोश तक, तब तक तो सब ठीक था , सपने थे दिल था धड़कन थी दर्द भी था
दिलों का सौदागर कब बना ,पहली बार दिल और भरोसा तोड़ा तो बुरा लगा फिर कम बुरा लगा फिर बुरा लगना बंद हो गया
ये आज अतीत का कौन सा दरवाजा खुल गया है जो दिल दिमाग को भारी किये जा रहा है
घाट पर बैठे पण्डे से माथे पर चन्दन लगवाता हूँ शायद दिमाग को ठंडक मिले
आइना देखता हूँ पर ये मैं तो नहीं हूँ
आज अतीत का कौनसा दरवाज़ा खुल गया।
ReplyDeleteसब बेहतर। खूब बढ़िया।
आज अतीत का कौनसा दरवाज़ा खुल गया।
ReplyDeleteसब बेहतर। खूब बढ़िया।
कोशिशो में हूँ सोनल को वापस कहानियां कविताओ की तरफ लौटा लाऊँ , आप लिखते रहे प्रेरणा मिलती है
DeleteHaaan bilkul wapas laaiiye sonal ko kahaniyon kavitaaon ki taraf....Bahut Bahut pasand aaya ye.. !
DeleteBehad umda sonalji
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को शनिवार, ०६ जून, २०१५ की बुलेटिन - "आतंक, आतंकी और ८४ का दर्द" में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद। जय हो - मंगलमय हो - हर हर महादेव।
ReplyDeleteकमाल के बिम्ब हैं तीनों ही ...
ReplyDeleteदिलों का सौदागर कब बना ,पहली बार दिल और भरोसा तोड़ा तो बुरा लगा फिर कम बुरा लगा फिर बुरा लगना बंद हो गया.....बहुत अच्छा लगा...ये पंक्तियां छू गई..कोई कैसे धीरे-धीरे अपनी ही आत्मा से समझौता कर लेता है।
ReplyDeleteतीनों बिम्ब लाजवाब रहे
ReplyDeleteयहाँ यहाँ भी पधारें
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मन को छू जाने वाले भाव....। बधाई।
ReplyDelete............
लज़ीज़ खाना: जी ललचाए, रहा न जाए!!
बेहतरीन पोस्ट सोनल जी
ReplyDeleteकम शब्दों में बहुत कुछ कहती एक खूबसूरत कहानी!
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