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Wednesday, January 6, 2010

डर


अचानक मेरी आँख खुलती है,मैं अपने आप को एक अंधरे कमरे में पाती हूँ जहाँ मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा,दिल का बोझ दिमाग पर हावी होने लगा है, दिमाग में सारे समय घडी की सुइयों की तरह कुछ कुछ चलता रहता है ,और इसी सोच में कभी कभी मन की बातें अपने आप जुबां से निकलने लगती है, जो सामने वाले को बडबडाने जैसा लगता है, मुझे इस घुटन से बाहर निकालो प्लीज़........................... मैं अचानक चीख पड़ती हूँ ,


"का भवा गुडिया कौन्हों बुरा सपना देखिन का " निर्मला काकी ने मेरे माथे पर हाँथ फेरते हुए कहा, काकी के झुरियों भरे हाँथ का स्पर्श मुझे दो पल तो सुकून देता है पर , वो हाँथ हटतेही मैं फिर उसी अँधेरे कुएं में डूबता सा महसूस करती हूँ, कई बार अपने भयानक सपनों में मैं मैंने निर्मला काकी को पुकारने की कोशिश भी की पर गले से आवाज़ ही नहीं निकली,

"का भवा लल्ली ", काकी ने लगभग मुझे झिझोड़ते हुए कहा . "अरी सूरज देबता सर अपर आई गए है ,दिन चढ़े सोती ही रहियो का , स्कूल नहीं जाने है का ",कहते हुए उन्होंने खिडकियों के परदे हटा दिए .....मेरे कालेज का आखिरी साल था पर काकी के लिए मैं अभी भी स्कूल में ही थी.

खिडकियों के पार सूर्यदेव अपनी  आभा बिखेर रहे थे, बहुत ही सुहानी सुबह थी ,शायद ये सुबह की ताज़ा किरने और हवा का असर था ,जो मेरे डरावने सपने की स्मृति एक दम से लुप्त हो गई.

बस से कालेज का सफ़र एक घंटे का है मैं अपनी सीट पर बैठ कर वापस अपने ख्यालों में खो गई, रात होते ही मैं एकदम अकेली क्यों हो जाती हूँ मुझे डरावने सपने क्यों घेर लेते है,हे ईश्वर रात आया ही ना करे..........

बचपन से ही अपने आसपास हमेशा काकी को ही पाया मम्मी, पापा अपनी जॉब में बिजी रहे वो कोशिश करके भी मेरे लिए समय नहीं निकाल नहीं पाते,रात को उनकी नींद में व्यवधान ना हो इसलिए मुझे शुरू से अकेले सोने की आदत डाल दी, अपनी गुडिया को पकड़ कर मैं सोने लगी.
मेरी बालपन की बेसुध नींद शायद उस दिन से ही मुझसे दूर हो गई जबसे मैंने अपने कमरे में आधी रात को किसी अजनबी को महसूस किया,अपने कंधे पर किसी के हाँथ का स्पर्श पाकर मैंने आँखे खोली और पहचानना चाहा,पर अँधेरे को चीरता वो साया कही लुप्त हो गया,उसके बाद कई रातों तक मैं सो नहीं पाई,माँ से कहना चाहा पर उन्हें ये मेरा भ्रम लगा  ..उनके पास मेरे लिए समय के अलावा सब कुछ था , अपने कैशोर्य में मैं ..किसी करीबी सहेली ,बड़ी बहन की कमी से गुज़र रही थी जिससे मैं बात कर सकू. मेरे माँ के पास सोने के अनुरोध को मेरा बचपना समझ कर टाल दिया गया...
फिर एक रात वो हुआ जिसने शायद मेरा आत्मविश्वास हमेशा के लिए जगा  दिया रात के अँधेरे में मैंने फिर उसी साए को अपने कमरे में महसूस किया,मैं दम साधे लेती रही मैं अपने डर का चेहरा देखना चाहती  थी,उसके हाँथ मेरे कंधे पर थे और वो मेरे चेहरे की तरफ घूर रहा था,शायद यह निश्चिन्त कर रहा था मैं सो चुकी हूँ,मेरे हाँथ धीरे धीरे टोर्च की तरफ बढ़ रहे थे हो मैंने छुपा कर रखी थी, मैंने टोर्च जला कर अचानक उसके चेहरे पर मारी, और चीखने लगी,मैंने उसका शर्ट पकड़ लिया कुछ ही पलों में माँ और पापा कमरे में आ गए , कमरे  की लाइट जल चुकी थी , मेरा डर कोई भ्रम नहीं था, हमारा ड्राईवर कमरे में सर झुकाए खडा था, और उससे ज्यादा झुका हुआ हुआ सर था मेरे माँ और पापा का..............मेरे चेहरे पर गुस्से,डर और अपमान के भाव एक साथ थे रुंधे गले से मैं कुछ बोलना चाहती थी पर माँ ने मुझे  गले से लगा लिया और मैं रो पड़ी..शायद अब शब्दों की जरूरत नहीं रह गई थी.
कहा अनकहा सबकी समझ में आ चुका था........माँ और  पापा अब मुझे अपने साथ होने का विश्वास दिला रहे है है .
वो रात जा चुकी है उसके बाद कितनी रातें गुजर चुकी है पर मेरे मन के कोने में कहीं एक डर अपना निशाँ छोड़ गया है,जो आज भी मेरे व्यक्तित्व को झिंझोड़ जाता है ......

12 comments:

  1. अपका संस्मरण पढ कर सिहर सी उठी लडकियाँ घर मे भी सुरक्षित नहीं है। अच्छा लिखती हैं आप शुभकामनाय्

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  2. बहुत अच्छा लिखा है, ईश्वर आपको भयमुक्त करे

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  3. आप सभी की टिपण्णी के लए धन्यवाद्, यह मेरा संस्मरण नहीं है ,ये मेरी एक मित्र का अनुभव है जिसे मैंने अपनी लेखनी दी है,नारी और असुरक्षा दोनों पर्यायवाची बन गए हैं ये अपने आप में पूरी बहस का विषय है, शेष फिर कभी
    सोनल

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  4. ऐसी घटनायें मन पर हमेशा के लिए एक गहरा असर छोड़ जाती है..इससे उबरा जा सकता है एक शक्कत करनी होगी..संस्मरण पढ़ कर सिहर उठे...


    अनेक शुभकामनाएँ.

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  5. ऐसी यादें मन में डर बैठा ही जाती है ...डर से डरें नहीं लड़ें ...सामना करें ...!!

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  6. जितना उम्दा ब्लॉग उतनी ही उम्दा बातें। इसे यूंही जारी रखें। शुभकामनाएं।

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  7. बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......

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  8. bahut achha likha hai aapne un bhavo ko jo nari man mehsus karta hai

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  9. sach hai ye...har ladki ki zindgi ka...aise hi kai haadse--- kahe ankahe se--- ladki ko kadam kadam par ehsaas karate hain uske ladki hone ka....khud ba khud kadam ruk jate hain....well written..!!

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  10. एकांत एक स्पेस की तरह होता है जिसमे कुछ भी भरा जा सकता है सुकून या भय.
    आधुनिकता के बाने तले हम बच्चों को क्या परोस रहे हैं आपने इसको रेखांकित किया है. लेखनी ने जीवंत कर दिया है शब्दों को.

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  11. ऐसी घटनाएँ बहुत सी लड़कियों के साथ घटती हैं, पर कोई उसे व्यक्त नहीं कर पाता.

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  12. उफ़ ..कल ही सत्यमेव जयते पर ऐसा ही विषय था. और तुम्हारी यह कहानी उससे पहले की है.
    बहुत गंभीर है मुद्दा जिसके पीछे बहुत से कारण हैं. बहुत ही सजीव अभिव्यक्ति.

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