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Thursday, February 25, 2010

आज यूँही (होली)

लो मैं फिर आ गई फिर युही लिखने के लिए ,पिछली बार बसंत था तो इस बार फागुन, मुझे लगता है बचपन से हिंदी महीनों क नाम क साथ उनकी विशेषताएं मुझे जो बताई गई वो ही मेरे इस यूँही का कारण है वरना जनवरी फरवरी जानने वालो को कभी ऐसे बौराते देखा है,

शिवरात्रि से जो फागुन की उमंग चद्ती है वो होली पर बम भोले का प्रसाद(ठंडाई ) पाए बिना उतरता ही नहीं,जब फर्रुखाबाद में थी तब हर गली हर मोड़ पर होली की उमंग खींच लेती थी,ठेलों पर गुलाल के रंग आँखों को ठंडक देते तो हलवाई की दूकान पर रस की गुझिया जीभ के सारे स्वाद तंतु जगा देती,मंदिरों में रोली क साथ गुलाल का टिका लगने लगता तो रंगभरी एकादशी तक चलता..होली पूजन को गोबर की गुलेरियाँ कहीं पथ रही होती तो ,कांजी के लिए बड़े उतरने को कही कडाही चढ़ी होती तरह तरह क पकवान, पर क्या मजाल होली से पहले कुछ चखने को भी मिल जाए.



आज वो होली नहीं है जिसमें "रंग भंग और तरंग " का संगम होता था, आज थोड़ी अभिजात्य प्रकार की होली मनाती हूँ, जब सुखा गुलाल हाँथ में लेकर मिलने वालों को "हैप्पी होली" बोलती हूँ, तो कहीं छोटी सी सोनल हाँथ में गीला रंग लिए सहेलियों के साथ गलियों में होली है  भाई होली है के नारे लगा कर दौड़ जाती है .

"आप सभी को होली की शुभकामनाएं "

Saturday, February 20, 2010

इंतज़ार फागुन का

 पेड़ों पर लद गया भार फागुन का



गलियों में छा गया खुमार फागुन का


जब मन बहका सा हो और गालों पर दहके टेसू


समझलो ख़त्म हुआ इंतज़ार फागुन का






२.जब मन बहके और तन लहके


बिन बात कहीं मैं मुस्काऊं


नयन लगें हो राहों पर


सुलझी लट फिर से सुलझाऊं


कैसे हुई मैं बावरी


इसका मुझको ध्यान नहीं


जो फागुन में तुम आन मिलो प्रिय


मैं बासंती हो जाऊं



Tuesday, February 16, 2010

हर हर गंगे ! बम बम भोले


हमेशा अख़बारों में टीवी पर कुंभ से जुडी खबरें देखती थी, तो मन में विचार आता था कैसा लगता होगा ? बहुत भीड़ होती होगी ,गन्दगी, अव्यवस्था होगी, और चैनल बदलते ही कुंभ भी मन से निकल जाता.

शायद मेरा सोचना कुंभ के बारे में ऐसा हे रहता पर बम भोले की कृपा से शिवरात्रि पर हरिद्वार जाने का अचानक मौक़ा मिला , हमने इसे इश्वर की इक्छा माना रात १२ बजे कार्यक्रम बना और सुबह ५.३० पर निकल पड़े

११ फरवरी २०१०

सुबह सुबह कुछ अलसाए कुछ उत्साहित हम निकल पड़े भोले की नगरी की ओर बीच में आँख लग गई जब आँख खुली तो अपनी बाई ओर गंगा नहर को बहते पाया, इतना सुन्दर द्रश्य आँखें हट ही नहीं रही थी कभी सोचा ही नहीं था की सुबह इतनी सुहानी भी हो सकती है मेरा कवि मन गंगा की लहरों के साथ हिलोरे लेने लगा, अभी रास्ता लंबा था तो शिवानी जी की "शमशान चम्पा " को सखी बना लिया.

हरिद्वार हे प्रभु , कितना जीवंत ये कुंभ का प्रभाव था या मन की आस्था की लग रहा था की बस यही तो आना था मुझे, होटल से विश्वकर्मा घाट १०० मीटर की दूरी पर था जितना चाहो डुबकी लगाओ या किनारे बैठ कर भागीरथी की लहरों को निहारो, फ्रेश होकर कंधे पर कैमरा टांगा और अकेले निकल पड़ी, जब निकल रही थी तो सोचा नहीं था ये अनुबव जीवन पर्यंत याद रहेगा.

महाशिवरात्रि से एक दिन पहले मनो सारे रास्ते हर की पौड़ी की तरफ जा रहे थे हर प्रान्त ,हर वय के लोग आस्था की गंगा में डुबकी लगाने जा रहे थे,सबके चेहरे अजनबी थे पर सब एक ही डोर से बंधे लग रहे थे, मैं हमेशा भीड़ से घबराती थी पर ये समूह कुछ अलग था, श्रधा आस्था प्रेम धर्म सब एक ही जगह, अभेद सुरक्षा व्यवस्था की वजह से ३ किलोमीटर पैदल चलना पड़ा पर जैसे ही हर की पौड़ी के दर्शन हुए तो लगा मेहनत सफल हो गई.

सच में जीवनदायनी है गंगा, गंगाजल स्पर्श करते ही आँखे छलक पड़ी मन स्वतः ही अपने बिछड़े परिजनों को याद कने लगा और उनकी मुक्ति की कामना भी सच में अभूतपूर्व है गंगा और अद्भुत है कुंभ.

१२ फरवरी २०१०

महाकुभ महाशिवरात्रि और शाही स्नान ......सुबह से ही मन उद्वेलित क्या करुँगी आज होटल वालों से पूछा उन्होंने अखाड़ों के दर्शन करने की सलाह दी, तो फिर निकल पड़ी मैं हर की पौड़ी की ओर, पर ये क्या सारे रास्ते बंद पुलिस से पूछा उन्होंने बोला शंकराचार्य चौक पर बैठ जाइए सारे अखाड़े वही से निकालेंगे, अजीव सा रोमांच महसूस हो रहा था हजारों की भीड़ एक साथ,सड़क के किनारे बैठी थी,

मेरी संत समाज में कभी भी बहुत अधिक आस्था नहीं रही शायद ये हमारी पीढ़ी का दुर्भाग्य है, हम भी उनके बारे में जानते ही नहीं,मेरे साथ में आगरा से से आये एक बुजुर्ग थे उन्होंने मुझे अखाड़ों ,नागा बाबा, और उनके दर्शन के साथ करने का माहत्म्य बताया, मुझे तो सारा माहौल ही चमत्कारिक सा लग रहा था,अचानक कहे से भजनों के आवाज आई तो देखा, कुछ विदेशी युवा ढोलक मंजीरे लेकर शिव महिमा का गुणगान कर रहे है, कुछ लज्जा सी लगी मुझे बहुत याद करने पर भी ॐ नमह शिवाय के अलावा कुछ नहीं याद आया ना कोई मंत्र ना कोई भजन........

दो घंटों की प्रतीक्षा के बाद मैं तो वहां से उठने का मन बनाने लगी थी पर आस पास से आवाज आ रही थी "इश्वर के दर्शन इतने सहज नहीं होते , अब चाहें शाम हो जाए जायेंगे तो दर्शन कर के ". मेरी आस्था जो कहीं गुडगाँव की भाग दौड़ में मंद हो गई थी, धार्मिक मौहोल में वापस फलीभूत होने लगी.....

अचानक कुछ हलचल हुई और फिर मैंने जो देखा वो वास्तव में अद्भुत था झुण्ड के झुण्ड साधू , नागा बाबा हथियारों के साथ , सोने के सिहासन पर आरूढ़ महामंडलेश्वर ,उनके साथ शाही ध्वज लिए देश विदेश से आये भक्त जन, सब कुछ स्वप्न की तरह ,कितना सम्मोहक हाँथ अपने आप श्रधा से जुड़ गए , मस्तक झुक गया,और मन इश्वर को धन्यवाद देने लगा.

अपने सौभाग्य पर यकीन नहीं आ रहा था, सारे विश्व से आये संतों के दर्शन एक साथ , नागा बाबा तो साक्षात शिव का रूप लग रहे थे.......

कुंभ वास्तव में एक दर्शनीय अवसर है और उसपर शाही स्नान के दर्शन हो जाए तो सोने पर सुहागा,इस अनुबव नें मेरे मन को जो शान्ति और अपनी भारतीय धर्म और संत समाज के प्रति सम्मान और गर्व की अनुभूति दी है वो सदा मेरी स्मृति में रहेगी.

(लिखना तो बहुत था गंगा स्नान के बारे में, विदेशी भक्तों ,अवधूत बाबा के बारे में पर फिर कभी )

Thursday, February 4, 2010

लोग सवाल पूछेंगे


हम इस डर से लोगों का हाल नहीं पूछते

लोग फिर हमसे सवाल पूछेंगे
हम तो पूछेंगे कैसा है तबियत पानी
वो हमारे जख्मों का हाल पूछेंगे

गर वो हाल पूछे तो कोई बुराई नहीं
पर वो जख्मों को नाखून से कुरेदते है
हम मरहम की उम्मीद रखते है
वो सवालों से कलेजा बींध देते है

इसी लिए ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली हमने
बस मुस्कुरा कर सर झुकाते हैं
करीब जायेंगे तो वही हाल होगा
इसलिए हर रिश्ता दूर से निभाते हैं