पेड़ों पर लद गया भार फागुन का
गलियों में छा गया खुमार फागुन का
जब मन बहका सा हो और गालों पर दहके टेसू
समझलो ख़त्म हुआ इंतज़ार फागुन का
२.जब मन बहके और तन लहके
बिन बात कहीं मैं मुस्काऊं
नयन लगें हो राहों पर
सुलझी लट फिर से सुलझाऊं
कैसे हुई मैं बावरी
इसका मुझको ध्यान नहीं
जो फागुन में तुम आन मिलो प्रिय
मैं बासंती हो जाऊं
सखियाँ खेलन को आई
ReplyDeleteबन के सजना,
मैं ना खेलूंगी तुम संग
करो मोहे तंग ना।
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साजन के रंग में रंगकर
साजन की हो ली,
तू तो हो गई री जोगन
खेले ना होली।
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घर घर धमाल मचाए
सखियों की टोली,
साजन परदेश बसा है
कैसी ये होली।
BEHTREEN RACHNA..
ReplyDeleteजो फागुन में तुम आन मिलो प्रिय
ReplyDeleteमैं बासंती हो जाऊं ..
फागुन ही क्यों .. जब पिया आन मिले तो पूरा साल ही मन बासंती रहता है ... लाजवाब लिखा है ...
भार फागुन का
ReplyDeleteयहाँ भार पढ़ते ही मजा आ गया. इतना सुंदर लिखते हो तो मन बासंती होगा ही.