लो मैं फिर आ गई फिर युही लिखने के लिए ,पिछली बार बसंत था तो इस बार फागुन, मुझे लगता है बचपन से हिंदी महीनों क नाम क साथ उनकी विशेषताएं मुझे जो बताई गई वो ही मेरे इस यूँही का कारण है वरना जनवरी फरवरी जानने वालो को कभी ऐसे बौराते देखा है,
शिवरात्रि से जो फागुन की उमंग चद्ती है वो होली पर बम भोले का प्रसाद(ठंडाई ) पाए बिना उतरता ही नहीं,जब फर्रुखाबाद में थी तब हर गली हर मोड़ पर होली की उमंग खींच लेती थी,ठेलों पर गुलाल के रंग आँखों को ठंडक देते तो हलवाई की दूकान पर रस की गुझिया जीभ के सारे स्वाद तंतु जगा देती,मंदिरों में रोली क साथ गुलाल का टिका लगने लगता तो रंगभरी एकादशी तक चलता..होली पूजन को गोबर की गुलेरियाँ कहीं पथ रही होती तो ,कांजी के लिए बड़े उतरने को कही कडाही चढ़ी होती तरह तरह क पकवान, पर क्या मजाल होली से पहले कुछ चखने को भी मिल जाए.
आज वो होली नहीं है जिसमें "रंग भंग और तरंग " का संगम होता था, आज थोड़ी अभिजात्य प्रकार की होली मनाती हूँ, जब सुखा गुलाल हाँथ में लेकर मिलने वालों को "हैप्पी होली" बोलती हूँ, तो कहीं छोटी सी सोनल हाँथ में गीला रंग लिए सहेलियों के साथ गलियों में होली है भाई होली है के नारे लगा कर दौड़ जाती है .
"आप सभी को होली की शुभकामनाएं "
आपको भी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteवो बचपन था ... ये यौवन है ....
ReplyDeleteहोली की मंगल कामनाएँ .....
बहुत सुन्दर रचना । आभार
ReplyDeleteHappy Holi
ReplyDeleteहोली की शुभकामनाएँ.
ReplyDeletecute..choti sonal...happy holi sis...
ReplyDeleteसमय की कीमत तो सबको चुकानी पड़ती है.
ReplyDeleteनन्हीं सोनल की कोमल हथेलियाँ भी तो अब ना जाने कितने अहसासों से गुजरती होंगी ना. आने वाली होली तक आपके जीवन में एक्स्ट्रा रंग घुले रहें.
aapne bahut achha likha hai...waqai behad khoobsurat aur dilse...
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