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Wednesday, February 8, 2012

श्राप को भी वरदान करो

पतन नहीं
उत्थान करो
रण का तुम
आह्वान करो
लक्ष्य भले ही
दुष्कर हो
अर्जुन सा
शर-संधान करो
भय का जो
अंधियारा हो
विफल प्रयास जो
सारा हो
एक ध्येय पर
अड़ जाओ
देह की माना
सीमा है
अन्तर की  सीमा
मत बांधो
 
श्राप को भी
वरदान करो

18 comments:

  1. लाजबाब प्रेरक प्रस्तुति है आपकी.
    शौर्य और साहस का संचार कर रही है.

    अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार.

    मेरे ब्लॉग पर आईएगा,सोनल जी.

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  2. ये बात ...विजयी भव्:.:)

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  3. ओजयुक्त, प्रेरक कविता। बहुत सुंदर प्रस्तुति!

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  4. साहस का संचार करती सुन्दर प्रस्तुति।

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  5. वाह..बहुत बढ़िया..
    ऊर्जा से भरपूर रचना..

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  6. श्राप को भी वरदान करो ... बहुत खूब ।

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  7. बहुत सुंदर प्रेरक कविता। धन्यवाद।

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  8. मन के उत्साह को द्विगुणित करती पंक्तियाँ..

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  9. लक्ष्य भले ही
    दुष्कर हो
    अर्जुन सा
    शर-संधान करो
    ............. सुंदर और प्रेरक पंक्तियाँ

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  10. Saarthak ahwan karti ... Ojasvi rachna ... Bahut prerak ...

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  11. देह की माना
    सीमा है
    अन्तर की सीमा
    मत बांधो

    बड़ी ख़ूबसूरत बात कही है.

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  12. उत्साह से लबरेज पंक्तियाँ ,मनोबल बढाती . आभार

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  13. देह की माना
    सीमा है
    अन्तर की सीमा
    मत बांधो

    ....बहुत प्रेरक ओजमयी प्रस्तुति...बहुत सुंदर

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  14. अन्तर की सीमा
    मत बांधो
    श्राप को भी
    वरदान करो.

    बेहतरीन सन्देश देती सुंदर प्रस्तुति.

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  15. अन्तर की सीमा
    मत बांधो
    श्राप को भी
    वरदान करो

    बहुत ही ओजमयी सुंदर और प्रेरक कविता

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  16. @देह की माना सीमा है
    अन्तर की सीमा मत बांधो ...
    अति सुन्दर!

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  17. देह की माना
    सीमा है
    अन्तर की सीमा
    मत बांधो

    behad khoobsoorat rachana .....sadar abhar.

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