वो तनहा !
छोड़कर घर फुटपाथ पर वो पड़ा था
वक़्त ने कितना कड़ा चांटा जड़ा था
गाँव को लगता था साहब बन गया वो
आखिरी दम सांस में काँटा गड़ा था
सपने तोड़े सबके और उम्मीदें जलाई
राख पर अपनी आज वो तनहा खड़ा था
की बगावत समझा खुद को सिकंदर
पेट का सच आज सपनो से बड़ा था
किस तरह कहता मुझे वापस बुला लो
सारे घर से रात भर कितना लड़ा था
बहुत खूब ...
ReplyDeleteचल मरदाने,सीना ताने - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
Deleteकिस तरह कहता मुझे वापस बुला लो
ReplyDeleteसारे घर से रात भर कितना लड़ा था.....kash aisa na hota.....
महत्वाकांक्षाओं की मार बडी तेज़ पड़ती है कभी....
ReplyDeleteचलो सुबह का भूला शाम घर आने की सोच तो रहा है....
अनु
की बगावत समझा खुद को सिकंदर
ReplyDeleteपेट का सच आज सपनो से बड़ा था
....बहुत खूब...बहुत मर्मस्पर्शी रचना..
एहसास हुआ यही क्या कम है.
ReplyDeleteगाँव को लगता था साहब बन गया वो
ReplyDeleteआखिरी दम सांस में काँटा गड़ा था .
सच कहूँ या आईना ! सुन्दर रचना के लिए बधाई !
behtreen rachna...
ReplyDeleteबहुत प्रभावी कविता..
ReplyDeleteकिस तरह कहता मुझे वापस बुला लो
ReplyDeleteसारे घर से रात भर कितना लड़ा था
बढिया है.
Very nice!
ReplyDeleteसटीक अभिव्यक्ति ..... शहर आ कर बड़ा आदमी बनाने की लालसा ऐसी स्थिति भी पैदा कर सकती है ।
ReplyDeleteबढ़िया - पर यह है कौन ???
ReplyDeleteTamasha-e-zindagi
Kitane logon kee katha hai yah. Na Ghar ka na ghatka see sthiti. Dukh ki abhiwyakti.
ReplyDeleteसब पापी पेट का सवाल है !!!!
ReplyDeleteकिस तरह कहता मुझे वापस बुला लो
ReplyDeleteसारे घर से रात भर कितना लड़ा था ..
बुत उम्दा ... हर शेर काजवाब ... अलग के कहता हुवा ....
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसुन्दर...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteदर्द बयानी ! अच्छी है।
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