बादलों की मंडी थी
नदियों के धारों को
किनारों ने पकड़ा था
सब्र उसका छूटा जो
बिफर के निकल गई
उफनती नदी उस पल
किनारों पर चढ़ गई
चीखती लहरों में
आंसू थे पहाड़ों के
जंगल की कब्र थी
अवशेष देवदारों के
विनाश हमने रचा
उसका प्रतिकार था
लाखो आघातों पर
देवभूमि का चीत्कार था
वाह बहुत सुंदर, बिलकुल सार्थक कहा है, बहुत बधाई यहाँ भी पधारे
ReplyDeleteरिश्तों का खोखलापन
http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_8.html
वाह सोनल जी आपने तो खूबसूरत शब्दों के भाव से वर्तमान स्थिति का आईना दिखा दिया बहुत खूब...
ReplyDeleteबेहतरीन ....
ReplyDeleteमार्मिक ....
कुदरत का कहर सबने देखा इस बार
ReplyDeleteबेहद सुन्दर प्रस्तुतीकरण ....!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (10-07-2013) के .. !! निकलना होगा विजेता बनकर ......रिश्तो के मकडजाल से ....!१३०२ ,बुधवारीय चर्चा मंच अंक-१३०२ पर भी होगी!
सादर...!
शशि पुरवार
ह्रदय विदारक-
ReplyDeleteसटीक प्रस्तुति-
आभार आदरेया-
हम्म....
ReplyDeleteकुदरत का कहर नहीं बल्कि देवभूमि का चीत्कार था .... बहुत सार्थक रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और मार्मिक रचना ।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन फिर भी दिल है हिंदुस्तानी - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteसचमुच, बड़ा दुखद चीत्कार था!
ReplyDeleteसच कहा आपने..
ReplyDeleteहम मानव को प्रकृति अपने हिसाब से हमारे किये-धरे के लिए दण्डित करना बखूबी जानती है ..
हृदय विदारक घटना..
ReplyDeletehamesha ke liye dukhad smriti
ReplyDeleteदेव भूमि का चीत्कार तो लंबे समय से था .. अपर हमने अब सुना जब नगाड़े बजे ...
ReplyDeleteइन्सान सुनता कहां है आज ...
सार्थक रचना ...
वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Achhi rachana!
ReplyDeleteUfff....Aap ab bhi utne hi khoobsurat ho!!
ReplyDeleteबहुत उम्दा भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteबहुत सामयिक और मार्मिक प्रस्तुति
ReplyDeleteBeautiful poem filled with a deep sadness.
ReplyDeleteCheck my poem on the same @ The youth's write by Rishi Jain.