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Wednesday, June 3, 2015

बेतरतीब मैं (३ जून )

बेतरतीब मैं (३ जून )
(१)
दुनिया कीचड है अपने आप को कमल मत समझो कीचड के दाग अगर दामन पर लगे तो खुद से घिन आते देर नहीं लगेगी।
आस पास सूअर घूमते  है जिन्हे उसी कीचड में लोटकर आनंद की प्राप्ति होती है आपको दिखाते है ये कीचड तब तक गंदा लग रहा है जब तक बाहर से इसको देख रहे हो एक बार भीतर तो  उतरो फिर दुर्गन्ध सुगंध में बदलेगी।
अभी तो ना जाने का ऑप्शन खुला है एक बार उतरे तो बाहर आने का कोई रास्ता नहीं  मिलेगा।
कुछ सुख ना मिलें तो बेहतर।


(२)
मोह है इस शहर से इस गली से ,गली के मोड़ पर पान के खोके से रास्ते में पड़ने वाले जामुन के पेड़ से ,साल भर मिलने वाली छाया से , कितनी बार कदम उठाये के वापस लौटा  जाए वहीँ ठिकाना बनाया जाए,  एक प्याज ,एक चुटकी नमक ,चार रोटी  और सत्तू दो वक़्त ये तो जुड़ ही जाएगा।
शायद सुकून की नींद भी मिल जाए जो एक मुट्ठी गोलियां गटककर भी नसीब नहीं होती है ,आसमान के तारे भी नहीं दीखते यहाँ से।
पर कोल्हू के बैल की यात्रा अनवरत होती है एक ही दिशा में उसके थकने तक ,उसके थमने तक


(३)

जब पास समय होता है तो हम व्यस्तता तलाशते है जब व्यस्त होते है तो समय की कमी का रोना रोते है , किसी दिन शायद समझ जाए हमें चाहिए क्या , क्या ये खोज ये मानसिक स्थिति सिर्फ मेरी है या इस यात्रा में मेरे साथ बहुत से साये है।


(४)
पीठ पर एक ज़ख्म उभर आया है , धूप  में जलता है ,ठंडी हवा में टीस मारता है कभी कभी इस तरह शांत हो जाता है मानो वो वहां है ही नहीं , कितने  आंसू  इस ज़ख्म के चलते जाया हुए है , नहीं याद कब मेरी पीठ पर सवार हुआ था रह रह कर अपने अस्तित्व को जताता रहता है।
बरहाल जब तक तुम थे ये नहीं था अब ये है और तुम लौटे नहीं_ 

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