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Thursday, November 19, 2009

तेरी इबादत


हम भी कमाल का हुनर रखते है
गम में भी मुस्कुरा लेते है
हमारी सिसकियाँ जहान ना सुन पाए
इसलिए ग़ज़ल गुनगुना लेते हैं

तुझको ही मान लिया अपना खुदा हमने
तुझको कब समझा अपने से जुदा हमने
जब जी चाह करें तेरी इबादत
तेरे कंधे पर सर को झुका लेते है

माना बहुत मसरूफ हो तुम
पर अपनी तन्हाई का क्या करें हम
जब जी चाहा तुमको करीब कर लूं
तेरी तस्वीर सीने से लगा लेते हैं









3 comments:

  1. तुम आज आओ ना,
    हमेशा जैसे आते हो|
    तन्हाई को सजाओ,
    हमेशा जैसे सजाते हो|

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  2. सुन्दर कविता के लिए धन्यवाद्।

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  3. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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