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Saturday, February 20, 2010

इंतज़ार फागुन का

 पेड़ों पर लद गया भार फागुन का



गलियों में छा गया खुमार फागुन का


जब मन बहका सा हो और गालों पर दहके टेसू


समझलो ख़त्म हुआ इंतज़ार फागुन का






२.जब मन बहके और तन लहके


बिन बात कहीं मैं मुस्काऊं


नयन लगें हो राहों पर


सुलझी लट फिर से सुलझाऊं


कैसे हुई मैं बावरी


इसका मुझको ध्यान नहीं


जो फागुन में तुम आन मिलो प्रिय


मैं बासंती हो जाऊं



4 comments:

  1. सखियाँ खेलन को आई
    बन के सजना,
    मैं ना खेलूंगी तुम संग
    करो मोहे तंग ना।
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    साजन के रंग में रंगकर
    साजन की हो ली,
    तू तो हो गई री जोगन
    खेले ना होली।
    ----
    घर घर धमाल मचाए
    सखियों की टोली,
    साजन परदेश बसा है
    कैसी ये होली।

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  2. जो फागुन में तुम आन मिलो प्रिय
    मैं बासंती हो जाऊं ..

    फागुन ही क्यों .. जब पिया आन मिले तो पूरा साल ही मन बासंती रहता है ... लाजवाब लिखा है ...

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  3. भार फागुन का
    यहाँ भार पढ़ते ही मजा आ गया. इतना सुंदर लिखते हो तो मन बासंती होगा ही.

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