बहुत दिन हुए.......
कच्ची अमियों की फांकों पे बुरके नमक
पतंग को हवा में उडाये हुए
झूले पे पींगे बढाए हुए
हाँ बहुत दिन हुए ठहाका लगाये हुए
आखिरी बार कब .....
लिखा था ख़त
निहारा था चाँद को
तनहा बैठे थे छत पर
हाँ बहुत दिन हुए ग़ज़ल गुनगुनाये हुए
पता नहीं क्यों ......
बेर उतने मीठे नहीं
कनेर भी दीखते नहीं
गलिया सूनी सी रहती है
हाँ बहुत दिन हुए मोहल्ले में मजमा जमाये हुए
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteहर रंग को आपने बहुत ही सुन्दर शब्दों में पिरोया है, बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeletebahut badiya.......dil ko choo gayee aapki kavita....
ReplyDeletepata nahi kya kya yaad dila diya aapne
पता नहीं क्यों ......
ReplyDeleteबेर उतने मीठे नहीं
सुन्दरता से सत्य उकेरती रचना
सब कुछ कितना मिस कर रही हैं आप !
ReplyDeleteबहुत दिन हो जाने पर ऐसा लगने ही लगता है !
सुन्दर रचना ! आभार !
"बहुत दिन हुए.......
ReplyDeleteकच्ची अमियों की फांकों पे बुरके नमक
पतंग को हवा में उडाये हुए
झूले पे पींगे बढाए हुए
हाँ बहुत दिन हुए ठहाका लगाये हुए
...."
और फिर
"बेर उतने मीठे नहीं
कनेर भी दीखते नहीं
गलिया सूनी सी रहती है
हाँ बहुत दिन हुए मोहल्ले में मजमा जमाये हुए"
एक शब्द ही कहना चाहूँगा "लाजवाब".
गुजरा याद आता है अक्सर गुजर जाने के बाद
ReplyDeleteक्यों न मज़मा लगाया हर सुबह-हर शाम गुजर जाने के बाद.
आप तो सहजता से वार कर जाती हैं...अति..सुन्दर...कविता...
ReplyDeleteप्रेम हो जाने के बाद भी कभी कभी ऐसा लगता है।
ReplyDeleteकैसे बेर मीठे होंगे .... लोग इतने खट्टे हो चले हैं
ReplyDeleteकी मिठास सोचते ही नहीं