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Saturday, March 6, 2010

बहुत दिन हुए.......

बहुत दिन हुए.......

कच्ची अमियों की फांकों पे बुरके नमक

पतंग को हवा में उडाये हुए

झूले पे पींगे बढाए हुए

हाँ बहुत दिन हुए ठहाका लगाये हुए



आखिरी बार कब .....

लिखा था ख़त

निहारा था चाँद को

तनहा बैठे थे छत पर

हाँ बहुत दिन हुए ग़ज़ल गुनगुनाये हुए



पता नहीं क्यों ......

बेर उतने मीठे नहीं

कनेर भी दीखते नहीं

गलिया सूनी सी रहती है

हाँ बहुत दिन हुए मोहल्ले में मजमा जमाये हुए

10 comments:

  1. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

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  2. हर रंग को आपने बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों में पिरोया है, बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  3. bahut badiya.......dil ko choo gayee aapki kavita....
    pata nahi kya kya yaad dila diya aapne

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  4. पता नहीं क्यों ......

    बेर उतने मीठे नहीं
    सुन्दरता से सत्य उकेरती रचना

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  5. सब कुछ कितना मिस कर रही हैं आप !
    बहुत दिन हो जाने पर ऐसा लगने ही लगता है !
    सुन्दर रचना ! आभार !

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  6. "बहुत दिन हुए.......
    कच्ची अमियों की फांकों पे बुरके नमक
    पतंग को हवा में उडाये हुए
    झूले पे पींगे बढाए हुए
    हाँ बहुत दिन हुए ठहाका लगाये हुए
    ...."
    और फिर
    "बेर उतने मीठे नहीं
    कनेर भी दीखते नहीं
    गलिया सूनी सी रहती है
    हाँ बहुत दिन हुए मोहल्ले में मजमा जमाये हुए"
    एक शब्द ही कहना चाहूँगा "लाजवाब".

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  7. गुजरा याद आता है अक्सर गुजर जाने के बाद
    क्यों न मज़मा लगाया हर सुबह-हर शाम गुजर जाने के बाद.

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  8. आप तो सहजता से वार कर जाती हैं...अति..सुन्दर...कविता...

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  9. प्रेम हो जाने के बाद भी कभी कभी ऐसा लगता है।

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  10. कैसे बेर मीठे होंगे .... लोग इतने खट्टे हो चले हैं
    की मिठास सोचते ही नहीं

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