उत्सव मुझको प्रिय नहीं
एकांत रुदन ही भाता है
भीगी आँखों से मेरा
अंतस धुल सा जाता है
भीड़ मुझे नरमुंड लगे
मित्र काग के झुण्ड लगे
परिचित चीलों गिद्धों से
पहले कौन नोच खाता है
जितने आवरण मुख पर है
उतनी पीड़ा भीतर है
विद्रोह कष्ट की ज्वाला से
मेरा स्व: जलता जाता है
उत्सव मुझको प्रिय नहीं
क्या बात हो गई जी ...
ReplyDeleteविचलित मन:स्थिति बखूबी चित्रित किया है जिसके इशारों को समझना जरुरी है - मार्मिक प्रस्तुति
ReplyDeleteओए होए एकदम साहित्यिक टाइप शिल्प कर दिया ये तो.
ReplyDeleteभीड़ मुझे नरमुंड लगे
मित्र काग के झुण्ड लगे
क्या बात है ...
क्या हुआ भाई ... दोस्तों से यूँ बेरुखी .... ये अच्छी बात नहीं है ..:)
ReplyDeleteमन की व्यथा स्पष्ट हो रही है ..
भीड़ मुझे नरमुंड लगे
ReplyDeleteमित्र काग के झुण्ड लगे
परिचित चीलों गिद्धों से
पहले कौन नोच खाता है .... सत्य का नग्न स्वरुप , जिसे एथेंस का सत्यार्थी नहीं झेल सका
एकांत रुदन ही भाता है ||
ReplyDeleteखूबसूरत अंदाज |
बधाई ||
man ki vyatha ki gahan abhivyakti .aabhar
ReplyDeleteBHARTIY NARI
ऐसा लगा जैसे बच्चन साहब को पढ़ रहा हूँ
ReplyDeleteइससे ज्यादा क्या कहूँ,
मन भर आये,
ReplyDeleteउत्सव कैसे।
भीड़ मुझे नरमुंड लगे
ReplyDeleteमित्र काग के झुण्ड लगे
परिचित चीलों गिद्धों से
पहले कौन नोच खाता है
मन की व्यथा की सटीक और प्रभावी अभिव्यक्ति।
सबके जीवन में ऐसे क्षण आते हैं..पर कोई-कोई उन्हें शब्दों में उतार पाते हैं..:)
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया कविता है.....खासतौर से शब्दविन्यास बेहतरीन है.......मेरे पास दो कमेंट्स हैं......ये मेरे दोस्त का है......
ReplyDeleteआशा का जगमग दीपक
मेरे मन में भी जलता है
अरमान उछलती किरणों का
मेरे भी दिल में पलता है
गीत मधुरता का प्रियता का
मेरा ह्रदय भी गाता है
किसी उत्सव की प्रतीक्षा क्यों
उत्सवमय जीवन हो जाता है
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteप्रभावी अभिव्यक्ति .......
ReplyDeleteबाप रे बाप! सोनल जी
ReplyDeleteइतने वेदना,इतना आक्रोश
आपकी अभिव्यक्ति तो ज्वालामुखी
फटने का अहसास करा रही है.
मेरे ब्लॉग पर भी आना जाना बनाये रखियेगा.
ye berukhi ...aur dostoan se ...aakhir huva kya ? ...rachana bahut hi acchi hai
ReplyDeleteswagat hai yahan par aapka
" लैला की कब्र पर थिरकते अल्फाज़ याने ग़ज़ल ,मजनु का दीवानापन याने ग़ज़ल ..दर्द और तड़प ये दो किनारों को जोडती हुई बहेती नदी याने ग़ज़ल ...डूबने दो ,डूबने दो उस ग़ज़ल में ..जहाँ दर्द आँखों में उतर आता है और दिल की हर गलियों में जहाँ तड़प थिरकती हो और वो तडपाहट में लबो के द्वारा सुनाई जाती ग़ज़ल याने " मौत " को भी सुनहरा बनानेवाला जैसे कोई " संगीत " हो ..मानो लैला की आह याने ग़ज़ल ,मजनु की तड़प याने ग़ज़ल ...हीर की पुकार याने ग़ज़ल ,रांझे का दर्द याने ग़ज़ल ....उफ्फ्फ ये ग़ज़ल ! .... |"http://eksacchai.blogspot.com/2011/09/blog-post_06.html "
सोनल जी,
ReplyDeleteआरज़ू चाँद सी निखर जाए,
जिंदगी रौशनी से भर जाए,
बारिशें हों वहाँ पे खुशियों की,
जिस तरफ आपकी नज़र जाए।
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
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ब्लॉग समीक्षा की 32वीं कड़ी..
पैसे बरसाने वाला भूत...
अब इतनी भी क्या बेरुखी इस समाज से -कविता तनिक भी नहीं भायी !
ReplyDeleteकविता उत्साह और प्रेरणा का माध्यम रही है -युग युगान्तरों से ...
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ.....सोनल जी
ReplyDelete:(
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 08 -09 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज ... फ़ोकट का चन्दन , घिस मेरे नंदन
मन की व्यथा की सटीक और प्रभावी अभिव्यक्ति। धन्यवाद|
ReplyDeleteमन की उलझन की सुन्दर अभिवयक्ति....
ReplyDeleteइतनी उदासी..इतनी हताशा ..क्यूँ?
ReplyDeletewow, sonal ji, boht sundar likhti hai aap
ReplyDeleteबहुत खूब कहा है आपने ... कभी यूं भी ख्याल हो ही जाता है ।
ReplyDeleteसोनल जी, शब्दो ने दिल को छुआ ऐसा तो नही कहुन्गा... पर मार्मीक शब्द है. शब्दो का अच्छा इस्तमाल किया है आपने...
ReplyDeleteHey ! lovely creation !
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteउत्सव मुझको प्रिय नहीं
आज के माहोल में ऐसी निराशा वाले पल आते है कभी कभी .. इन सब से बाहर आना ही पड़ता है ...
ReplyDeleteमन के उद्गार कुछ भी हो सकते हैं यही तो कविता में अनोखे रंग भरते हैं |
ReplyDeleteभीड़ मुझे नरमुंड लगे
ReplyDeleteमित्र काग के झुण्ड लगे
परिचित चीलों गिद्धों से
पहले कौन नोच खाता है
बहुत खूबसूरत कविता!