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Tuesday, September 6, 2011

उत्सव मुझको प्रिय नहीं


उत्सव मुझको प्रिय नहीं
एकांत रुदन ही भाता है
भीगी आँखों से मेरा
अंतस धुल सा जाता है

भीड़  मुझे नरमुंड लगे
मित्र काग के झुण्ड लगे
परिचित चीलों गिद्धों  से
पहले कौन नोच खाता है

जितने आवरण मुख पर है
उतनी पीड़ा भीतर है
विद्रोह कष्ट  की ज्वाला से
मेरा स्व: जलता जाता है

उत्सव मुझको प्रिय नहीं

32 comments:

  1. विचलित मन:स्थिति बखूबी चित्रित किया है जिसके इशारों को समझना जरुरी है - मार्मिक प्रस्तुति

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  2. ओए होए एकदम साहित्यिक टाइप शिल्प कर दिया ये तो.

    भीड़ मुझे नरमुंड लगे
    मित्र काग के झुण्ड लगे
    क्या बात है ...

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  3. क्या हुआ भाई ... दोस्तों से यूँ बेरुखी .... ये अच्छी बात नहीं है ..:)

    मन की व्यथा स्पष्ट हो रही है ..

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  4. भीड़ मुझे नरमुंड लगे
    मित्र काग के झुण्ड लगे
    परिचित चीलों गिद्धों से
    पहले कौन नोच खाता है .... सत्य का नग्न स्वरुप , जिसे एथेंस का सत्यार्थी नहीं झेल सका

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  5. एकांत रुदन ही भाता है ||

    खूबसूरत अंदाज |
    बधाई ||

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  6. ऐसा लगा जैसे बच्चन साहब को पढ़ रहा हूँ

    इससे ज्यादा क्या कहूँ,

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  7. मन भर आये,
    उत्सव कैसे।

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  8. भीड़ मुझे नरमुंड लगे
    मित्र काग के झुण्ड लगे
    परिचित चीलों गिद्धों से
    पहले कौन नोच खाता है

    मन की व्यथा की सटीक और प्रभावी अभिव्यक्ति।

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  9. सबके जीवन में ऐसे क्षण आते हैं..पर कोई-कोई उन्हें शब्दों में उतार पाते हैं..:)

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  10. बहुत ही बढ़िया कविता है.....खासतौर से शब्दविन्यास बेहतरीन है.......मेरे पास दो कमेंट्स हैं......ये मेरे दोस्त का है......

    आशा का जगमग दीपक
    मेरे मन में भी जलता है
    अरमान उछलती किरणों का
    मेरे भी दिल में पलता है

    गीत मधुरता का प्रियता का
    मेरा ह्रदय भी गाता है
    किसी उत्सव की प्रतीक्षा क्यों
    उत्सवमय जीवन हो जाता है

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  11. बाप रे बाप! सोनल जी
    इतने वेदना,इतना आक्रोश
    आपकी अभिव्यक्ति तो ज्वालामुखी
    फटने का अहसास करा रही है.

    मेरे ब्लॉग पर भी आना जाना बनाये रखियेगा.

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  12. ye berukhi ...aur dostoan se ...aakhir huva kya ? ...rachana bahut hi acchi hai

    swagat hai yahan par aapka

    " लैला की कब्र पर थिरकते अल्फाज़ याने ग़ज़ल ,मजनु का दीवानापन याने ग़ज़ल ..दर्द और तड़प ये दो किनारों को जोडती हुई बहेती नदी याने ग़ज़ल ...डूबने दो ,डूबने दो उस ग़ज़ल में ..जहाँ दर्द आँखों में उतर आता है और दिल की हर गलियों में जहाँ तड़प थिरकती हो और वो तडपाहट में लबो के द्वारा सुनाई जाती ग़ज़ल याने " मौत " को भी सुनहरा बनानेवाला जैसे कोई " संगीत " हो ..मानो लैला की आह याने ग़ज़ल ,मजनु की तड़प याने ग़ज़ल ...हीर की पुकार याने ग़ज़ल ,रांझे का दर्द याने ग़ज़ल ....उफ्फ्फ ये ग़ज़ल ! .... |"http://eksacchai.blogspot.com/2011/09/blog-post_06.html "

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  13. सोनल जी,

    आरज़ू चाँद सी निखर जाए,
    जिंदगी रौशनी से भर जाए,
    बारिशें हों वहाँ पे खुशियों की,
    जिस तरफ आपकी नज़र जाए।
    जन्‍मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
    ------
    ब्‍लॉग समीक्षा की 32वीं कड़ी..
    पैसे बरसाने वाला भूत...

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  14. अब इतनी भी क्या बेरुखी इस समाज से -कविता तनिक भी नहीं भायी !
    कविता उत्साह और प्रेरणा का माध्यम रही है -युग युगान्तरों से ...

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  15. जन्‍मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ.....सोनल जी

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  16. मन की व्यथा की सटीक और प्रभावी अभिव्यक्ति। धन्यवाद|

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  17. मन की उलझन की सुन्दर अभिवयक्ति....

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  18. इतनी उदासी..इतनी हताशा ..क्यूँ?

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  19. wow, sonal ji, boht sundar likhti hai aap

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  20. बहुत खूब कहा है आपने ... कभी यूं भी ख्‍याल हो ही जाता है ।

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  21. सोनल जी, शब्दो ने दिल को छुआ ऐसा तो नही कहुन्गा... पर मार्मीक शब्द है. शब्दो का अच्छा इस्तमाल किया है आपने...

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  22. बहुत सुंदर रचना
    उत्सव मुझको प्रिय नहीं

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  23. आज के माहोल में ऐसी निराशा वाले पल आते है कभी कभी .. इन सब से बाहर आना ही पड़ता है ...

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  24. मन के उद्गार कुछ भी हो सकते हैं यही तो कविता में अनोखे रंग भरते हैं |

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  25. भीड़ मुझे नरमुंड लगे
    मित्र काग के झुण्ड लगे
    परिचित चीलों गिद्धों से
    पहले कौन नोच खाता है

    बहुत खूबसूरत कविता!

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