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Monday, September 23, 2013

बेतरतीब मैं (तेईस सितम्बर )



बेतरतीब मैं (तेईस सितम्बर )

तुम सोचते हो ज़हर मुझे मार देगा  गलत हो मैं ज़हर गले से उतरने नहीं देती मैंने मासूम दिल को बचा रखा है, नीलकंठ हूँ ,मेरा पीला पड़ता चेहरा पतझड़ की आमद का अंदेसा देता है फ़िक्र मत करो मैं अगली बहार के लिए तैयार हूँ

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छिछिली नीयत वाले और ओछी सोच वाले ज्यादा है उनके चेहरे एक ख़ास तरह की मुस्कान से ढके है , ज्यादा मिठास से उनके वजूद में उभर आया लिजलिजापन,छिप नही पाता,वो शुभचिंतक ,सह्रदयता , निछ्चलता के मुखौटे लिए हमारे आस पास अपने आप को बेच रहे है, मेरे गले पर जमा ज़हर अपनी तेज़ी से मेरी आँखों को साफ़ रखता है और उनके मुखौटे पिघला देता है
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एक देह के भीतर कितने महायुद्ध जारी है , मारने वाले हम, मरने वाले हम,
किसी पल कोई हिस्सा देह की सीमा तोड़कर आज़ाद हो जाएगा तो क्या ये युद्ध का अंत होगा,शायद नहीं भीतर विजयी होने वाला, बाकि देह आत्माओ से भिड जाएगा ,युद्ध कभी समाप्त नहीं होते ....अनवरत चलते है
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मैंने तुमसे आज सुबह सीखी है जिद और सर उठाकर रहना,आघातों का सामना करना ,तूफानों में खड़े रहना ,पददलित होने पर उठ खड़े होना अपनी मिट्टी पकड़ कर रहना
घास मेरी वर्तमान गुरु

7 comments:


  1. ये बिखरे बेतरतीब ख़याल बड़े चुभ रहे हैं.....

    अनु

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  2. दमदार प्रस्तुति |

    मेरी नई रचना :- चलो अवध का धाम

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  3. बहुत प्रभावी प्रस्तुति...

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  4. प्रभावी प्रस्तुति

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  5. हर पल जूझना, हर दिन समेटना, नियति हमारी।
    गहरे भाव

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