गुनगुनी धुप में
गुनगुनाते दिन
फिर आये
रूठते मनाते दिन ..
उलझाकर लटें
ताव में आते दिन
तिरछी भवों पर
भाव खाते दिन
फिर आये
रूठते मनाते दिन ..
कमर के बल पर
निसार जाते दिन
सुर्ख रुखसार पर
तमतमाते दिन
फिर आये
रूठते मनाते दिन ..
छिटक कर
दूर जातें दिन
सुबक कर
पास आते दिन
फिर आये
रूठते मनाते दिन ..
भरी दोपहर में
उकताते दिन
उनबिन उबासियों से
काटे दिन
फिर आये
गुनगुनाते दिन
फिर आये
रूठते मनाते दिन ..
उलझाकर लटें
ताव में आते दिन
तिरछी भवों पर
भाव खाते दिन
फिर आये
रूठते मनाते दिन ..
कमर के बल पर
निसार जाते दिन
सुर्ख रुखसार पर
तमतमाते दिन
फिर आये
रूठते मनाते दिन ..
छिटक कर
दूर जातें दिन
सुबक कर
पास आते दिन
फिर आये
रूठते मनाते दिन ..
भरी दोपहर में
उकताते दिन
उनबिन उबासियों से
काटे दिन
फिर आये
रूठते मनाते दिन ..
वाह
ReplyDeleteचलिये आए तो सही वो दिन:-)आप भी आयेगा समय मिले आपको तो मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है :-)
ReplyDeleteबेहतरीन!
ReplyDeleteसादर
एक गीत याद आ रहा है...
ReplyDeleteआती रहेंगी बहारें, जाती रहेंगी बहारे
दिल की नजर से दुनिया को देखो
दुनिया सदा ही हंसी हैं.:)
बहुत दिनों बाद लिखा है सोनल ! और बहुत अच्छा लिखा है.
:-)
Delete" गुनगुनी धूप में/ गुनगुनाते दिन ...तिरछी भवों पर/ भाव खाते दिन ...कमर के बल पर/ निसार जाते दिन...सुबक कर पास आते दिन " मान मनुहार अभिसार प्यार सभी कुछ समेट लिया है सीधे-सादे शब्दों में, बिना किसी बनावट-आडंबर के ! रेशमी एहसास-सी नाज़ुक रचना ! अभिनंदन सोनल जी !!
ReplyDeleteकुछ भूले बिसरे दिन
ReplyDeleteकुछ आने वाले दिन
.....................अच्छा है
वाह बहुत खूब
ReplyDeleteमन को भा गई ये गुनगुनी यादे
:)
ReplyDeleteजीवन में रूठना मनाना बना रहे...
ReplyDeleteYe roothne manane ka silsila yun hi chalta rahe to aur kya chahiye jeevan mein ...
ReplyDeleteबड़ी हसरत थी कभी मनाये उनको,
ReplyDeleteवो जालिम कभी रूठते ही नहीं |
रूठते इतराते दिन
ReplyDeleteमानते मनाते दिन
संकोच से रुकाते दिन
उल्लास से चलाते दिन
मुस्कान से लुभाते दिन
प्यार से बुलाते दिन
फिर आये!
sundar...pratikavita
Deleteyun hi ek kram bana rahta hai...
ReplyDeletevaah...bahut sundar kavitaa.
ReplyDeleteसुन्दर कविता है सोनल जी.
ReplyDeleteअभिव्यक्ति का यह अंदाज निराला है. आनंद आया पढ़कर.
ReplyDeleteभावों से नाजुक शब्द..
ReplyDeleteशामें तो हमेशा से मन में कवित्त जगाती रही हैं पर जाड़े की गुनगुनी धूप के आलावा कभी ये दिन नहीं सुहाए। आपकी इस कविता ने तो साल भर की दोपहरी से नाता जोड़ लिया।
ReplyDeleteबढ़िया...//// इसे भी देखे :- http://hindi4tech.blogspot.com
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteकिसी शायर ने लिखा है...
ख्बाब देखो मगर ख्वाब की चर्चा न करो:)