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Monday, January 30, 2012

फिर आये रूठते मनाते दिन ..

गुनगुनी धुप में
गुनगुनाते  दिन
फिर  आये
रूठते मनाते  दिन ..
उलझाकर लटें
ताव में आते दिन
तिरछी भवों पर
भाव खाते  दिन
फिर  आये
रूठते मनाते  दिन ..

कमर के बल पर
निसार जाते दिन
सुर्ख रुखसार पर
तमतमाते दिन
फिर  आये
रूठते मनाते  दिन ..
छिटक कर
दूर जातें दिन
सुबक कर
पास आते दिन
फिर  आये
रूठते मनाते  दिन ..
भरी दोपहर में

उकताते दिन 
उनबिन उबासियों से 
काटे दिन
फिर  आये
रूठते मनाते  दिन ..

22 comments:

  1. चलिये आए तो सही वो दिन:-)आप भी आयेगा समय मिले आपको तो मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है :-)

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  2. एक गीत याद आ रहा है...
    आती रहेंगी बहारें, जाती रहेंगी बहारे
    दिल की नजर से दुनिया को देखो
    दुनिया सदा ही हंसी हैं.:)
    बहुत दिनों बाद लिखा है सोनल ! और बहुत अच्छा लिखा है.

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  3. " गुनगुनी धूप में/ गुनगुनाते दिन ...तिरछी भवों पर/ भाव खाते दिन ...कमर के बल पर/ निसार जाते दिन...सुबक कर पास आते दिन " मान मनुहार अभिसार प्यार सभी कुछ समेट लिया है सीधे-सादे शब्दों में, बिना किसी बनावट-आडंबर के ! रेशमी एहसास-सी नाज़ुक रचना ! अभिनंदन सोनल जी !!

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  4. कुछ भूले बिसरे दिन
    कुछ आने वाले दिन
    .....................अच्छा है

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  5. वाह बहुत खूब
    मन को भा गई ये गुनगुनी यादे

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  6. जीवन में रूठना मनाना बना रहे...

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  7. Ye roothne manane ka silsila yun hi chalta rahe to aur kya chahiye jeevan mein ...

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  8. बड़ी हसरत थी कभी मनाये उनको,
    वो जालिम कभी रूठते ही नहीं |

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  9. रूठते इतराते दिन
    मानते मनाते दिन
    संकोच से रुकाते दिन
    उल्लास से चलाते दिन
    मुस्कान से लुभाते दिन
    प्यार से बुलाते दिन
    फिर आये!

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  10. सुन्दर कविता है सोनल जी.

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  11. अभिव्यक्ति का यह अंदाज निराला है. आनंद आया पढ़कर.

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  12. भावों से नाजुक शब्‍द..

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  13. शामें तो हमेशा से मन में कवित्त जगाती रही हैं पर जाड़े की गुनगुनी धूप के आलावा कभी ये दिन नहीं सुहाए। आपकी इस कविता ने तो साल भर की दोपहरी से नाता जोड़ लिया।

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  14. वाह!

    किसी शायर ने लिखा है...
    ख्बाब देखो मगर ख्वाब की चर्चा न करो:)

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