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Wednesday, July 18, 2012

विभीषिका

कायर ही तो है
देखी है पीठ
हर अवसर पर 
प्रत्यंचाए तनी  थी
रणभेरी बजी थी
गूंजी थी टंकार
और वह
ढूंढ रहा था
ऐसा स्थान जहां
ना पहुंचे आर्तनाद
ना कोई चीत्कार
वही था आयोजक
वही निमित्त था
कल तक चिंघाड़ता
अट्टहास करता
आज काँप रहा है
भावी रक्तपात
भांप रहा है
छाया में गिद्ध
देखता है प्रतिदिन
उनके आभासी नख
भेदते है आत्मा
सोचा ना था उसने
जब शिराओ से
निकल बहेगा
गिरेंगे मुंड
विजय का रस
कसैला करेगा
देह को उसकी
श्मशान जीवित हो
धिक्कारेंगे
और अपनी छाया
दोषी ठहरायेगी
रक्त मज्जा से सने
अमृत कलश को
चख पायेगा
मृत्यु के दावानल में
स्वयं जीवित रह पायेगा

15 comments:

  1. bahut bhyawah tasveer khinch di pankiyo se..lekin safal hui sarthk kavita

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  2. ये तो कड़क कविता हो गयी!

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  3. वही था आयोजक
    वही निमित्त था
    कल तक चिंघाड़ता
    अट्टहास करता
    आज काँप रहा है!!
    बढ़िया !

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  4. प्रवाहमय ओजपूर्ण कविता..

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  5. निःशब्द हूँ.................

    उत्कृष्ट रचना.........................
    सस्नेह
    अनु

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  6. बेहद सशक्‍त भाव लिए उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ...

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  7. श्मशान जीवित हो
    धिक्कारेंगे
    और अपनी छाया
    दोषी ठहरायेगी

    हरेक पंक्तियाँ लाजवाब ..
    सशक्त अभिव्यक्ति ..
    सादर !

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  8. सशक्त भावभिव्यक्ति...

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  9. इसमें अमरीका और यूरोप के इस्लामोफ़ैशिज़्म से टकराव की छाया है जो अगले महायुद्द का कारण है ।
    कवि भावी को भाँप गया है । बड़ी कविता है । क्या कहूँ ।

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  10. सस्वर पाठ में स्वाद आया.
    समझने के लिए ज़ोर मैंने लगाया नहीं.
    आशीष
    --
    इन लव विद.......डैथ!!!

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  11. श्मशान जीवित हो
    धिक्कारेंगे
    और अपनी छाया
    दोषी ठहरायेगी
    sundar aur sarthak, badhai.

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  12. बहुत क्रोध और रोष में लिखी रचना ...
    ये सच है की ये सब संभव नहीं ... जल जाता है खुद आप ही ..

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  13. प्रगतिवाद के साथ,यथार्थवाद प्रयोगवाद |
    रचना हेतु साधुवाद !साधुवाद !!साधुवाद !!!

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  14. तीसरे विश्वयुद्ध का काल्पनिक दृश्य आँखों में दिखने लगा, यूँ तीसरे विश्वयुद्ध की कल्पना भी संभव नहीं, युद्ध के पहले दिन पहले पल में ही पूरी दुनिया समाप्त हो जायेगी. सभी के पास एक साथ पूरी दुनिया को खत्म कर देने वाले परमाणु बम. कौन बचेगा? बहुत गहरी सोच है रचना में, शुभकामनाएँ.

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