"बहाने बसंत के"(1)
बसंत की सुबह अक्सर पापा के फरमान से होती ...बिना नहाय कोई छत पर नहीं चढ़ेगा ..जानते थे एक बार जो चढ़ गया वो किसी हालत में नीचे नहीं उतरेगा,वो बालपन का जोश वो उत्साह , बीच-बीच में दादी फ़्लैश बेक में चली जाती "घर में इन बच्चों के कुर्ते पीले रंग में रंग देते थे क्या मजाल कोई बच्चा बिना नहाय छत पर चढ़ जाए ... "
अपनी अलमारियों में पीले कपड़ों की ढूंढ शुरू हो जाती आखिर ऋतुराज का स्वागत उनके मन-भावन रंग में ही तो करना चाहिए,बचपन से कैशोर्य के बीच छतों पर बहार का त्यौहार लगने लगा था हर छत आबाद ,आँखे आकाश की ओर,
फुर्सत भरा फिर भी बेहद व्यस्त दिन ,थकाने वाला पर फुर्तीला दिन जो चेहरे साल भर नहीं दीखते थे वो भी उस दिन नज़र आ जाते , कदम बरबस छत की और चल पड़ते कुछ ख़ास कम्पटीशन होते , सबसे पहली पतंग किसने उड़ाई , सबसे बड़ी पतंग , सबसे ज्यादा पतंगे किसने काटी ,किसके म्यूजिक सिस्टम पर सबसे नए गाने बजे, किसकी उंगलियाँ सबसे ज्यादा ज़ख़्मी हुई .
आखिर बसंत के बाद मोहल्ले के मोड़ों पर डिस्कस करने का मसाला भी तो चाहिए .
खैर ,वैसे तो सार साल पतंगे आसमान के पहलु में गोते खाती पर तीन दिन इस त्यौहार को ख़ास बना देते पहला छोटा बसंत ,बसंत और बूढा बसंत
कितने तरह की पतंगे सजी धजी , नई पतंगों पर जब कन्ने बांधे जाते और नजाकत से उनके मुढ्हे मोड़े जाते ताकि हवा का सामना करने को तैयार हो जाए .
बसंत की सुबह की सबसे बड़ी चिंता हवा का रुख होती आखिर सही हवा के बिना पूरे दिन पतंग कैसे उड़ाई जायेगी ,कहीं तूफानी हवा चल गई तो त्यौहार का सत्यानाश। मिन्नतो का दौर चल पड़ता.
बच्चे अल सुबह से छत पर होते बड़े 10-11 बजे तक औरते सारा काम निपटा कर दोपहर में नाश्ता ,फल ,भुने आलू ,मूंगफली ,तहरी (पुलाव) से लेकर चाय के कई दौर सब छत पर,
हसी ठहाके तो गूंजते पर, कई समझौते भी पडोसी छतों से किये जाते ...मसलन "तुम मेरी पतंग नहीं काटोगे , लंगर नहीं डालोगे , पंतग कट गई तो डोर नहीं लूटोगे , ये बात अलग है दिन ढलते ढलते सारे समझोते टूट जाते , आखिर आकाश युद्ध में ऐसे समझोते कहाँ चलते है। बड़े बुजुर्गों का छतों पर रहना सुरक्षा और सद्भाव बनाय रखता , थोड़ी तू-तू मैं - मैं से मामला सुलझ जाता ... सारी रंजिशें पतंगों के साथ कट जाती (हर बार ऐसा नहीं होता एक जनाब हमारी छत पर कट्टा (देसी तमंचा ) लेकर चढ़ आये थे :-) )
सारा दिन तेज़ गीतों के ..कटी पतंगों के नाम रहता शाम को आकाश भर आतिशबाजी,एक दुसरे की छत पर जाना लजीज नाश्तों की प्लेटों की अदला बदली , और कुछ रंगारंग कार्यक्रम और बसंत बीत जाता, बड़ी पतंगे वापस अपने चौकोर बक्सों में आराम करती ,चरखी सारे दिन चक्कर खाने के बाद सुस्ताती, छत अगली सुबह के सन्नाटे को सोच उदास हो जाती, थके हारे नौनिहाल नींद में वो- काटा चिल्लाते या अपनी पतंग काटने के दुःख में नींद में सुबकते हुए भी पाए जाते , पैरों का दर्द रात को महसूस होता ,तेज मांझे से कटी उंगलिया टीस मारती पर बसंत से मोहब्बत वैसी ही रहती
(किस्सा लंबा होता जा रहा है मेरी बसंत के लिए दीवानगी ही ऐसी है अगर आप सब सुनना चाहेंगे तो बयान करेंगे छज्जे -छज्जे का प्यार वरना इतना ही काफी है )
अच्छा बसंतिया राग चल रहा है . पढने में मज़ा आ रहा है और बहुत कुछ याद भी.
ReplyDeleteबसंत के रंग में हम भी रंग रहे हैं आपके साथ ... पतंगों की प्रतियोगिता दुबई में भी होती अहि बसंत पे ...
ReplyDeleteजारी रखिये .. अपने यहाँ जैसे बसंत का आनंद और कहीं नहीं आ सकता .. सब कुछ फिल्म की तरह चलने लगता है आँखों के सामने यादें जीवंत हो जाती हैं .. घर बहुत याद आता है ..
ReplyDeleteअरे नहीं इतना काफी नहीं है ...जारी रखो. ये पीली कपड़े और पतंग के आगे कहानी और भी है:)
ReplyDeleteअब छज्जे की बात छेड़ ही दी है तो आगे भी जारी रहे .... :)
ReplyDeleteछज्जे -छज्जे का प्यार ..:) हम लोगों का कैशोर्य तो इसी के सहारे कट गया।
ReplyDeleteअरे ... हद है आलस की ... खुद थके जा रहीं है ... इल्जाम हम लोगो पर ... अरे जारी रहे ... सब कान धरे बैठे है !
ReplyDeleteबुलेटिन 'सलिल' रखिए, बिन 'सलिल' सब सून आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (13-02-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
ReplyDeleteसूचनार्थ |
वसंत और पतंगबाजी के बड़े रोचक किस्से याद दिला गयी आपकी पोस्ट ! आनंद आ गया ! आपके संस्मरण का हर वाक्य एक बीती कहानी सुना गया अपने अतीत की ! शुभकामनाएं !
ReplyDeleteवसंत की वह धूम हमें भी याद आ गई!
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने
ReplyDeleteमुझे दिल्ली का एक वासंती दिन आज भी याद है। मैं दोपहर भर बेरसराय की एक छत पर बैठा रहा, हवाएँ चलती रहीं, मुझे आश्चर्य होता रहा कि कोई यूँ ही पूरी दोपहर ऐसे ही कैसे गुजार सकता है? बसंत के पूरे निखार के लिए केवल दो कड़ियाँ अपर्याप्त लगीं।
ReplyDeleteसारी रंजिशें पतंगों के साथ कट जाती- जय हो!
ReplyDeleteबसब्त ऋतू बहुत ही लुभावनी और मनमोहक होती है| और इस सीजन में पतंग उड़ाने का अपना एक अलग ही मजा होता है| पतंग का आसमान को चीरते हुए आगे बदना हमारी मह्त्व्कंषा और जोश को प्रदर्शित करता है | Talented India News
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