अक्सर सोचती हूँ के बसंत मुझे बावरा क्यों करता है ,गीतों कविताओ और प्रेम से पहले भी बसंत मन लुभाता था ...पतंगों से घिरा आकाश, तीन दिन पहले से पतंगों में हिस्सेदारी छोटी छोटी चरखियां , नशे में झूमती इस छत से उस छत गिरती कागज़ की परियां और उनको पाने को लालायित चेहरे , और जिस हाँथ में वो परी उतरी उसके चेहरे का विजयी भाव देखने लायक ...
बसंत की तैयारी बसंत से एक रात पहले हिस्सा लगता, चोकोर बक्से निकले जाते जो खास तौर पर पतंग रखने के लिए दादाजी और उनके पूर्वजों ने बनवाये थे उसमें विशालकाय " अद्धा ,पौना " पतंगे सारे साल सुकून से सोती उन बड़ी पतंगों को हम हैरत से ताका करते यही हाल चर्खियों के बड़े भाई चरखों को देखकर होता , शीशम और संगमरमर के काम की नक्काशी वाली खूबसूरत ख़ास चरखियां जिन्हें हाँथ में थामने की हमारी ललक ,ललक ही रह जाती , हम हांथों में रंगबिरंगी छोटी छोटी चरखियां थामकर उल्लास में डूब जाते .... फिर आता सबसे कठिन समय जब पतंग-सद्दी -रील का बंटवारा होता,ये सार हिसाब किताब मेरे बड़े ताउजी के हांथों में था, और उनके फैसले पर कोई ऊँगली उठा ही नहीं सकता था। सबकी धड़कने तेज ,बिना किसी भेदभाव के सारे छोटे बच्चे बराबर पतंगे पाते बड़ों का कोटा ज्यादा था , हमारे भाई बिगड़ जाते ..
"ये उडाती तो है नहीं फिर इसको इत्ती सारी पतंगे क्यों ?"
उन्हें ताउजी आँख के इशारे से कंट्रोल कर देते ,आखिर उनकी लाडली भतीजियों से कोई कुछ कैसे कह सकता है , पतंगों के बटवारे के बाद हत्थे पर चरखी रखकर तागा चढाने का काम शुरू होता, और भाई की कोशिश शुरू हो जाती , "अरे अपनी गिट्टी मुझे अपनी चरखी में चढ़वाने दे ,मैं तुझे पतंग ऊँची करके दे दूंगा ", और हम बहल भी जाते . रात को ही फटी-टूटी पतंगों के इलाज का भी इंतज़ाम कर दिया जाता उबले आलू ,चावल , लेइ .
बसंत पंचमी के दिन सुबह कुछ ज्यादा जल्दी हो जाती आस-पास के घरो में बजने वाला तेज संगीत और वो-काटा का उदघोष ,आप चाहकर भी नहीं सो सकते ....
(अगले भाग में ... पीले कपडे ,पीले चावल और छज्जे-छज्जे का प्यार :-) )
वसंत पंचमी को पतंग ...कहाँ उड़ाते हैं जी ?
ReplyDeleteअच्छा ! लेबल में देखा फर्रुखाबाद !
रोचक किस्सों के अगले पन्ने का इन्तजार है !
सुन्दर प्यारी अभिव्यक्ति आभार
ReplyDeleteबहुत खूब सोनल जी... बचपन कि यादें ताज़ा करवा गई आपकी रचना!
ReplyDeletebehtreen post..........
ReplyDeleteपता नहीं क्यों..पर बसंत और उसकी रौनक मैंने सिर्फ रचनाओं में पढ़ी है. इसलिए मेरे लिए तुम्हारा यह संस्मरण बहुत ही उपयोगी और रोचक है.
ReplyDeleteलिखती रहो.
उडो...उडो...खूब उडो..........
ReplyDeleteपीले कपडे ,धानी चुनरिया और प्यार वाली पोस्ट का इंतज़ार रहेगा.
अनु
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ReplyDeleteखूबसूरत .... घर की याद आ गयी ... अब तो बसंत की शाम को आतिशबाज़ी भी होने लगी है
ReplyDeleteबसंत सदा ही बहार के साथ आता है..
ReplyDeleteबहुत प्यारी पोस्ट, पतंगें ऐसे लगती थीं कि देवताओं की ओर जा रही हों, आकाश हमारे लिए वर्जित क्षेत्र था केवल पंछियों के लिए एलाऊड, ऐसे में हमारी पतंगे पक्षियों के उड़ने के विशेषाधिकार के विरुद्ध ईश्वर की अदालत में हमारी अपील की तरह लगती थीं।
ReplyDeleteshikha varshneyFebruary 11, 2013 at 6:44 PM
ReplyDeleteपता नहीं क्यों..पर बसंत और उसकी रौनक मैंने सिर्फ रचनाओं में पढ़ी है. इसलिए मेरे लिए तुम्हारा यह संस्मरण बहुत ही उपयोगी और रोचक है.
लिखती रहो.
same here :)
बसंत पंचमी पर पतंग मेरठ में भी उड़ाई जाती हैं .... यहाँ को तो हमें पता है .... बाकी भी जगह उड़ाते होंगे ... रोचक संस्मरण
ReplyDeleteमौसम के अनुकूल -
ReplyDeleteसटीक अभिव्यक्ति |
आभार आदरेया -
मज़ेदार... हमारे यहां दशहरे पे पतंगें उडाई जाती थीं... छत पर ही खाना पीना और दंगा सब होता था... nostalgic करती post :)
ReplyDeleteये क्काटा!
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