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Wednesday, March 20, 2013

तू,तेरा अक्स


शोर था साँसों का
दिल में सन्नाटा
तेरे जाने के बाद
तू उग रही है यहाँ
जम रही है काई सी
आईने पे लगी बिंदी में
टेबल पर चूड़ियों में
पड़े सूखे गजरे में

छोड़ गई हो जानकर
चादर के आगोश में
बालों के नर्म  गुच्छे
कुछ टूटे लाल नाखून 
दुपट्टे से बिछड़े मोती
पायल से खफा घुँघरू
कप पर गुलाबी निशान
कमरे में इत्र -ए -ख़स

जागा हूँ उस दिन से
पलक भी झपकी नहीं
के तुम लौट ना जाओ
खडका कर कुण्डी कहीं
आहट सुनना चाहता हूँ
तुम्हे छूना चाहता हूँ
कहते है राख से भी
जन्म जाते है लोग
गर पुकारो दिल से




13 comments:

  1. कहाँ से शुरू कहाँ पे खतम ...अंत में मुंह से निकला ..उफ़ ...

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  2. सच में दर्द रिसता महसूस हुआ . खतरनाक है जी

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  3. मर्मस्पर्शी..

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  4. काश के किसी पुकार में इतनी शक्ति होती.....

    सुन्दर कविता..

    अनु

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  5. अभी मैं गुलजार साहब का गीत सिली हवा छू गई सुन रहा हूँ, इसके जज्बात बिल्कुल आपकी कविता से मिलते हैं।

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  6. उफ़ ... बहुत मुश्किल होता है किसी के जाने को बर्दाश्त कर पाना ...
    गहरे जज्बात ...

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  7. तभी तो ..... दिल ने पुकारा और ....... चले आये

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  8. दिल से निकली पुकार सब कुछ कर सकती है ।

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  9. आईने पे लगी बिंदी में ....

    kya bat he..!

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