शोर था साँसों का
दिल में सन्नाटा
तेरे जाने के बाद
तू उग रही है यहाँ
जम रही है काई सी
आईने पे लगी बिंदी में
टेबल पर चूड़ियों में
पड़े सूखे गजरे में
छोड़ गई हो जानकर
चादर के आगोश में
बालों के नर्म गुच्छे
कुछ टूटे लाल नाखून
दुपट्टे से बिछड़े मोती
पायल से खफा घुँघरू
कप पर गुलाबी निशान
कमरे में इत्र -ए -ख़स
जागा हूँ उस दिन से
पलक भी झपकी नहीं
के तुम लौट ना जाओ
खडका कर कुण्डी कहीं
आहट सुनना चाहता हूँ
तुम्हे छूना चाहता हूँ
कहते है राख से भी
जन्म जाते है लोग
गर पुकारो दिल से
कहाँ से शुरू कहाँ पे खतम ...अंत में मुंह से निकला ..उफ़ ...
ReplyDeleteबढ़िया !!!
ReplyDeleteसच में दर्द रिसता महसूस हुआ . खतरनाक है जी
ReplyDeleteबढिया है.
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी..
ReplyDeleteकाश के किसी पुकार में इतनी शक्ति होती.....
ReplyDeleteसुन्दर कविता..
अनु
ReplyDeleteअभी मैं गुलजार साहब का गीत सिली हवा छू गई सुन रहा हूँ, इसके जज्बात बिल्कुल आपकी कविता से मिलते हैं।
बहुत खूब!
ReplyDeleteइस कविता से ही पता चलता है कि कवि रहे भले सिटकनी वाले घरे में लेकिन कविता में कुण्डी ही लगायेगा।
उफ़ ... बहुत मुश्किल होता है किसी के जाने को बर्दाश्त कर पाना ...
ReplyDeleteगहरे जज्बात ...
तभी तो ..... दिल ने पुकारा और ....... चले आये
ReplyDeleteदिल से निकली पुकार सब कुछ कर सकती है ।
ReplyDeleteआईने पे लगी बिंदी में ....
ReplyDeletekya bat he..!
nice
ReplyDelete