मैं क्या सोचती हूँ ..दुनिया को कैसे देखती हूँ ..जब कुछ दिल को खुश करता है या ठेस पहुंचाता है बस लिख डालती हूँ ..मेरा ब्लॉग मेरी डायरी है ..जहाँ मैं अपने दिल की बात खुलकर रख पाती हूँ
सुन री सखि .................
जब होए अँधियारा
घर से बाहर मत निकलो
बड़ा शहर अंधियारी सड़के
घर से बाहर मत निकलो
पढ़ी लिखी भई सयानी
कौन भरम में जीती हो
नर्स बनो या बनो पायलट
सारे काज कर लेती हो
सूरज डूबे तुम छुप जाओ
घर से बाहर मत निकलो
बढे देश तो बढोगी तुम भी
आसमान छू लोगी तुम
आठ के बाद मुझको बतलाओ
घर कैसे पहुँचोगी तुम
थानेदार भी हाँथ जोड़ते
घर से बाहर मत निकलो ....
सुन री सखि
अपनी तन्हाइयों का
मुझसे सौदा कर ले
आज दिल कहता है
एक नया वादा कर ले
बहुत हुए रेशमी साए
जुल्फों के तेरे शानो पर
सपनीली आँखों को चल
धूप में सूखा कर ले
वफ़ा मिली भी मुझे
और निभाई भी दिल से
क्यों ना किसी लम्हा
दिल से कोई धोखा कर ले
महंगी है दुनिया बहुत
महंगे है जीने के सवाल
खुद इन ख्वाहिशो को
थोडा सा सस्ता कर ले
बलिस्त भर कम पड़ जाते है
मेरी पहुँच से तारे-आसमां
ज़रा नीचे एड़ी के
एक टुकड़ा हौसला रख दे
एक नूर भरी शाम...
मेरे पास सपनो का एक ढेर है उस ढेर को मैंने सौप दिया है उसे और वो उसमें से चमकीला सा कोई सपना चुनता है और सच कर देता है और हाँथ पकड़ के कहता है और सपने देखो ...एक सपना था जगजीत जी को सुनने का ..मौका भी था जब जगजीत जी और गुलाम अली साहब सीरी फोर्ट दिल्ली आये थे ...एक टिकेट के फासला उम्र भर का पछतावा दे गया ....
बस अब और कोई पछतावा अफोर्ड नहीं कर सकते ,हाँथ में टिकेट ,आँखों में चमक लिए ,सीरी फोर्ट के बाहर लगी कतार में खड़े हो गए ...हर उम्र के लोग , जवान दिखने की कोशिश करते बुजुर्ग , बुद्धिजीवी टाइप की बाते करते कुछ मेकप से रंगे चेहरे ,कुछ बेहद सादा कुछ संजीदा सब एक जगह इकठ्ठा , एक सफ़ेद कुरता पैजामा नोकदार जूतिया पहने बुजुर्ग को देखने के लिए उस फ़रिश्ते की एक झलक पाने की बेचैनी साफ़ थी ...
कार्यक्रम शुरू हुआ ..भूपेंद्र जी की सुरीली आवाज़ से उन्होंने याद किया कुछ अनमोल लम्हों को जब वो और जगजीत साहब साथ थे ....मौहोल खुशनुमा था एक के बाद एक तरानों ने समां बांध दिया मिलाली जी की जादुई आवाज़ का भी जब साथ मिला तो दिल झूम उठा दिल ढूंढता है ,होके मजबूर मुझे , हुज़ूर इस कदर भी ना इतरा के ,बीती ना बिताई रैना ..और भी ढेर से नगमें ...शाम को यादगार बना गए ...
फिर वो लम्हा आया जिसका इंतज़ार था ..वो फ़रिश्ता जिसे लोग गुलज़ार कहते है और वो अपने को ग़ालिब का मुलाजिम सामने आया पलके झपकना भूल गई और यकीन करना पड़ा ये सच है सपना नहीं ... चाँद सा झक सफ़ेद बुजुर्ग है पर इतना सम्मोहन की आप अपने आप को भूल बैठे ...हॉल में एक लड़की चीख भी पड़ी "I LOVE YOU गुलज़ार" .. एक के बाद एक नज़्म कभी आँखों के कोर भीगे ,तो कभी ठहाके लगे ,वो पन्ने पलटते गए और हम दुआ करने लगे ये शाम यूँही चलती रहे , कितनी बारीकी से पकड़ते है हर लम्हे को यार बात को ...लगता है जिन तिनको को लोग बेकार समझ कर उड़ा देते है गुलज़ार उनसे भी कविता रच डालते है ...कुछ भी जाया नहीं होता और अगर मैं ये शाम जाने देती तो शायद ये ज़िन्दगी जाया हो जाती... हॉल में भी बोला था यहाँ भी वही बोलूंगी
"I LOVE YOU गुलज़ार" .....
बैरी साजन
बैरी फागुन
स्वांग रचाए
नित नित मो से
क्षण में तपे क्षण में बरसे
सौं धराये
नित नित मो से
ना वो माने
ना मैं हारी
रंग चढ़ाए
नित नित मो पे
वो मुस्काये
तो मैं बलि जाऊं
मान कराये
नित नित मो से बैरी साजन
बैरी फागुन ....