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Thursday, March 29, 2012

चलो कुछ भूल जाएँ ......

इंसा पैदा हुए थे हम
हुए ना जाने कब विषधर
किसी अंधियारे कोने में
केंचुली छोड़ आयें
चलो कुछ भूल जाएँ  ...... 

उम्र बीती जिरह करते
जब भी उगला ज़हर उगला
किसी गुमनाम पीर पर
ज़हर का तोड़ पाए
चलो कुछ भूल जाएँ ..........
 
युग बदले ना तू बदला
रहा उथले का तू उथला
किसी गंगा में यूँ डूबें
के  मुक्ति पा ही जाए
चलो कुछ भूल  जाएँ............
 
बड़ी  रंजिश सहेजी हैं 
तुमने अपनी किताबों में
किसी पार्क की बेंच पर
इरादतन छोड़ आयें
चलो कुछ भूल जाएँ ....
 
मनभर  बोझ  लेकर
सफ़र कैसे करोगे तय
मंजिल पास में ही है
अंत आसाँ बनाये
चलो सब  भूल जाएँ ....

Thursday, March 22, 2012

सुन री सखि ................. जब होए अँधियारा


सुन री सखि .................
जब होए अँधियारा
घर से बाहर मत निकलो
बड़ा शहर अंधियारी सड़के
घर से बाहर मत निकलो
पढ़ी लिखी  भई सयानी
कौन भरम में जीती हो
नर्स बनो या बनो पायलट
सारे काज कर लेती हो
सूरज डूबे तुम छुप जाओ
घर से बाहर मत निकलो
बढे देश तो बढोगी तुम भी
आसमान छू लोगी तुम 
आठ के बाद मुझको बतलाओ
घर कैसे पहुँचोगी तुम
थानेदार भी हाँथ जोड़ते
घर से बाहर मत निकलो ....
सुन री सखि

Thursday, March 15, 2012

एक नया वादा कर ले


अपनी तन्हाइयों का
मुझसे सौदा कर ले
आज दिल कहता है
एक  नया वादा कर ले
बहुत हुए रेशमी साए
जुल्फों के तेरे शानो पर
सपनीली  आँखों को चल
धूप में सूखा कर ले
वफ़ा मिली भी मुझे
और निभाई भी दिल से
क्यों ना किसी लम्हा
दिल से कोई धोखा कर ले 
महंगी है दुनिया बहुत
महंगे है जीने के सवाल
खुद इन ख्वाहिशो को
थोडा सा सस्ता कर ले
बलिस्त भर कम पड़ जाते है
मेरी पहुँच से तारे-आसमां 
ज़रा नीचे एड़ी के
एक टुकड़ा हौसला रख दे

Wednesday, March 7, 2012

फागुन की बतिया


(1)
सुन पिया
भई बावरी
टूटे काहे अंग
चले हवा
देह दुखे
मुख मलिन
ढंग बेढंग

(2)

ओ गोरी
सुन बावरी
सब फागुन
का खेल
भोर -सांझ
में बने नहीं
मौसम ये बेमेल


(3)
सुन पिया
सखि काहे
प्रीत की है 
ये चाल
वैद ही इसमें
रोग दे
इस कारन
तू बेहाल


(4)
सखि की
माने सुमुखि
साजन की
माने नाहि
लगे जो
गले पिया के
रोग सभी
मिट जाए

Monday, March 5, 2012

एक नूर भरी शाम.

एक नूर  भरी शाम...
मेरे पास सपनो का एक ढेर है उस ढेर को मैंने सौप दिया है उसे और वो उसमें से चमकीला सा कोई सपना चुनता है और सच कर देता  है और हाँथ पकड़ के कहता है और सपने देखो ...एक सपना था जगजीत जी को सुनने का ..मौका भी था जब जगजीत जी और गुलाम अली साहब सीरी फोर्ट दिल्ली आये थे ...एक टिकेट के फासला उम्र भर का पछतावा दे गया ....
बस अब और कोई पछतावा अफोर्ड नहीं कर सकते ,हाँथ में टिकेट ,आँखों में चमक लिए ,सीरी फोर्ट के बाहर लगी कतार में खड़े हो गए ...हर उम्र के लोग , जवान दिखने की कोशिश करते बुजुर्ग , बुद्धिजीवी टाइप की बाते करते कुछ मेकप से रंगे चेहरे ,कुछ बेहद सादा कुछ संजीदा सब एक जगह इकठ्ठा , एक सफ़ेद कुरता पैजामा नोकदार जूतिया पहने बुजुर्ग को देखने के लिए उस फ़रिश्ते की एक झलक पाने की बेचैनी साफ़ थी ...
कार्यक्रम शुरू हुआ ..भूपेंद्र जी की सुरीली आवाज़ से उन्होंने याद किया कुछ अनमोल लम्हों को जब वो और जगजीत साहब साथ थे ....मौहोल खुशनुमा था एक के बाद एक तरानों ने समां बांध दिया मिलाली जी की जादुई आवाज़ का भी जब साथ मिला तो दिल झूम उठा दिल ढूंढता है ,होके मजबूर मुझे , हुज़ूर इस कदर भी ना इतरा के ,बीती ना बिताई रैना ..और भी ढेर से नगमें ...शाम को यादगार बना गए ...
फिर वो लम्हा आया जिसका इंतज़ार था ..वो फ़रिश्ता  जिसे लोग गुलज़ार कहते है और वो अपने को ग़ालिब का मुलाजिम  सामने आया पलके झपकना भूल गई और यकीन करना पड़ा ये सच है सपना नहीं ... चाँद सा झक सफ़ेद बुजुर्ग है पर इतना सम्मोहन की आप अपने आप को भूल बैठे ...हॉल में एक लड़की चीख भी पड़ी "I LOVE YOU गुलज़ार" .. एक के बाद एक नज़्म कभी आँखों के कोर भीगे ,तो कभी ठहाके लगे ,वो पन्ने पलटते गए और हम दुआ करने लगे ये शाम यूँही चलती रहे , कितनी बारीकी से पकड़ते है हर लम्हे को यार बात को ...लगता है जिन तिनको को लोग बेकार समझ कर उड़ा देते है गुलज़ार उनसे भी कविता रच डालते है ...कुछ भी जाया नहीं होता और अगर मैं ये शाम जाने देती तो शायद ये ज़िन्दगी जाया हो जाती... हॉल में भी बोला था यहाँ भी वही बोलूंगी
"I LOVE YOU गुलज़ार" .....



Saturday, March 3, 2012

बैरी साजन बैरी फागुन ..


बैरी साजन
बैरी फागुन
स्वांग रचाए
नित नित मो से
क्षण में  तपे
क्षण में बरसे
सौं धराये
नित नित मो से
ना वो माने
ना मैं हारी
रंग चढ़ाए
नित नित मो पे
वो मुस्काये 
तो मैं बलि जाऊं
मान कराये
नित नित मो से
बैरी साजन
बैरी फागुन ....