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Monday, February 25, 2013

किसी ने कहा होगा


कोई तो गिला होगा किसी ने कहा होगा
मसला भरे बाज़ार ऐसे नहीं उछला होगा
लहू के ताज़ा निशां आँख के मुहाने पर 
दर्द कोई सरहद तोड़ कर निकला होगा 
दरख्त के मानिंद छाया दिया करता था 
खुन्नस में तुमने ही रास्ता बदला होगा 
सूखे मोम की लकीरें देहरी पर निढाल 
कल इंतज़ार तन्हा  यहाँ पिघला होगा 
दिखाकर चमकीले सितारे बुझाए चराग 
तेरा मसीहा  भी नीयत से उथला होगा

Wednesday, February 20, 2013

ऑलमोस्ट अ डेट (बरसती फरवरी )


गुडगाँव के एक पाश सी सड़क से मेट्रो से दिल्ली के एक ठिकाने तक, कैफ़े कॉफ़ी डे पर मुंह बिचकाकर "शादी वाली कॉफ़ी " पा जाने तक,एक चमक एक उतावलापन  था, सब बटोर लेने की ख्वाहिश उस रोज़ जब मुझसे ज्यादा आसमान बरसा था पर भीगे तुम ही थे दोनों हालात में,

और मैंने पाया था सबसे ख़ास एहसास ...तुम्हारे साथ होने का, तुम्हारे वक़्त में से एक कतरन काट कर अपने पास छिपा लेने का ,इससे पहले तुम फिर इस घडी के गुलाम हो जाओ और तनहा छोड़ दो मुझे ,मैंने अपने हिस्से के तुमको अपने पास सहेजना चाहती थी .

मेरी आँखे जो देख रही थी उस पर दिमाग यकीन नहीं कर पा रहा था एक पूरा दिन पूरी शाम तुम मेरे साथ थे ... अरसा हो गया था इतना समय एक साथ रहे ,मैंने हिचकिचाते हुए कहा " दिल्ली हाट चलें ?"
"बारिश में दिल्ली हाट ,भीग जाओगी " तुमने हैरानी से कहा
"इतनी भी कहाँ है , फिर छतरी तो है " मैंने हिम्मत की
पता नहीं क्यों तुमने मना नहीं किया ,और अच्छा किया बरसों बाद हमने बरसों पहले का समय जी लिया ,बे-फिक्र कोई टारगेट नहीं कोई डेड लाइन नहीं बस हम दोनों, पहले जहां मेरी बातें नहीं ख़त्म होती थी आज मैं खामोश थी समझ नहीं पा रही थी क्या कहूं ...पर कहना बहुत कुछ था इससे पहले कोई मुझे इस सच्चे सपने से जगाकर कहे "उठो बेल्ट कसो और कोल्हू में जुत जाओ ".

अपनी पसंद का खाना हमेशा कई यादों को जगा देता है , महाराष्ट्र पवेलियन में बैठे हम दो बहुराष्ट्रीय कंपनी के ज़िम्मेदार कर्मचारी , बड़ा पाव , उसल पाव, अंडा पाव और पाव भाजी पर बात कर रहे थे , पेट भरने का कितना आसान और सस्ता इंतज़ाम हर चीज़ के साथ पाव , करोड़ों के बजट बनाने वाले तुम जब दुकानदार से साबूदाना वडा  समझ रहे थे तो सच कहूं बेहद मासूम लग रहे थे .

मेरा बस चलता तुम्हारी उस उत्सुकता को कहीं सात तहों में छिपा लेती और जब तुम बोर्ड रूम ,बहीखाता और बलेंस शीट में परेशान होते तो तुमको चुपके से मुट्ठीभर वो मासूमियत सौंप देती, 18-18 घंटों तक चलने वाले ऑफिस 24 घंटे बीप देने वाले ब्लैक-बेरी  मुझे उस सजा से लगते जो शायद किसी जन्म के पाप का फल है, हर वक़्त एक जासूस की तरह निगाह रखे ,
तुम से कई बार कह कर देखा पर तुम्हारा जवाब भी जायज़ है "दुनिया सिर्फ तितली ,फूलों और जुगनुओं के नाम नहीं है, उन्हें देखने के लिए पेट भरा होना चाहिए और इतने बड़े और महंगे शहर में पाँव टिके होने ज़रूरी है

सच्ची बात पर मैं और क्या कहूं , हम बंजारे ही तो है बस एक शहर से दुसरे शहर एक गाँव से दुसरे गाँव , हमारा कोई आँगन नहीं कोई नीम नहीं कोई पड़ोस नहीं ,हर बार हमारे जीवन की तख्ती काली स्याही से पोत कर तैयार कर दी जाती फिर से वही अ से ज्ञ तक, इस उठापटक को ....

मेट्रो स्टेशन से उतारते हुए मैं तुम्हे उस शहर के बारे में वो छोटी छोटी बातें समझा रही थी जो मैंने कितनी अकेली शामों में खुद महसूस की है और याद रखी है तुम्हे बताने के लिए , "ये लड़की रोज़ शाम यहीं किसी का इंतज़ार करती है ", " पता है सारे   हाई फाई इस ठेले पर खड़े कचोरी में एक्स्ट्रा चटनी डलवाते है ", और तुम मेरी बातों पर उस शाम ऐसे जता रहे थे जैसे मैं कितनी महतवपूर्ण बात कर रही हूँ .

कुछ दिन पहले मैं शायद इस रिश्ते पर आंसू बहा रही थी आज मेरी आँखों में ख़ुशी के आंसू थे,
प्यार में कभी कभी आंसू ज़रूरी होते है जो रिश्तों पर पड़ने वाली धुल को धोकर साफ़ कर देते हैं , फिर तो मेरे दिल की ख़ुशी का साथ आसमान ने भी दिया वो भी जी भर कर बरसा , कड़कती बिजलियों ने इतने घने अँधेरे में भी रौशनी की किरण दिखा ही दी

Friday, February 15, 2013

"बहाने बसंत के" (अंतिम भाग)





बावरे बसंत के खुमार से पार पाना इतना सहज कहाँ है, आसमानी पेंचों के साथ छतों पर लड़ने वाले पेंचों का ज़िक्र ना हो तो बात अधूरी सी रहती है, मोहल्ले में जुड़ने वाले दिल के रिश्ते अधिकतर एक तरफ़ा होते ,  छोटे शहर के पारखी सयाने हवा में मानो प्यार की महक कुछ पकने से पहले सूंघ लेते, चाहतो का इज़हार अक्सर नहीं होता ..एक दुसरे को दूर से ताककर  या सडक के किनारे खड़े होकर अपने वहां होने का एहसास दिलाना था , जानते थे खुलकर सामने आने में ..घर में "पादुका पूजन " ( चप्पलों से पिटाई ) के संयोग ज्यादा बनते ...

ऐसे डरे सहमे मौहोल में बसंत का इंतज़ार जायज था, महबूब के घर के पास वाली छतों पर बसंत पर चढ़ने के रास्ते तलाशे जाते नयी दोस्तियाँ होती ... कुछ मिन्नतें मनाई जाती ..घर वालों को समझाना होता आखिर एक पूरा दिन दीदार का कोई कैसे छोड़ दे ...कितनी खामोश मोहब्बते एक दीदार और मुस्कान के टॉनिक के साथ उस दिन तक चल जाती जिस दिन डोली उठती।

खुलकर सामने आने से बंदिशों और रुसवाई का दौर शुरू होने का डर, सुबह से गुलज़ार छतें  वसंतोत्सव के मद में झूमने लगती, दोपहर में  सुस्ताती और शाम आते आते एक बार  मेले की सी रौनक छा जाती , पीली साड़ियों में सजी कुलवधुएं ,पीला दुपट्टा लहराती नवयौवनाएं , और पीले टॉप या स्वेटर से काम चलाते हम जैसे कुछ अल्हड, एक दुसरे से हाल चाल पूछते , उत्साह बढाते, लड़के जहां छतों पर चढ़े रहते , हम लडकिया टोलियों में एक से दूसरी छतों पर डोलते, गप्पों बातों का अंतहीन सिलसिला, मीठी मीठी चुहलबाजियां, इनके बीच कच्ची शायरी में रंगी कोई पतंग छत पर आ जाए तो पूछो मत .

ठाकुर जी के भोग के लिए ख़ास मीठे चावल बनते जिनकी खुशबू और स्वाद आज भी सारे स्वाद तंतु जाग्रत कर देता है,दादी बसंत पर गंगा स्नान की महिमा हर साल बताती पर जानती थी इस दिन छत छोड़कर कोई कहीं नहीं जाने वाला, शुभ दिन होने के चलते सबसे ज्यादा शादियों के मुहूर्त इसी दिन निकलते ,शहर की शादियाँ तो फिर भी ठीक थी बाहर की शादियों में जाने के लिए तलवारें खिंच जाती "अरे उनको बसंत पर ही शादी रखनी थी क्या ".

साल बीते बसंत में कुछ नयी बातें जुडी "सरस्वती पूजा " , हमारे इंग्लिश के अध्यापक हर साल सरस्वती पूजा मनाते और माँ शारदा की नई मूर्ति स्थापित करते ,पुरानी प्रतिमा किसी छात्र को इस शर्त पर दी जाती वो पूरे साल मन लगाकर पढ़ाई करेगा, वही सच्ची सरस्वती पूजा होगी, एक साल माँ शारदा मेरे घर भी आई आज तक उनका आशीर्वाद फल रहा है . आजकल दीवाली से ज्यादा आतिशबाजी बसंत की रात हो होती है , टाट  में आग लगाकर मशालें जलाई जाती है , तीन दिन का त्यौहार आज एक दिन में सिमट गया है ....

ये दस्तावेज है ताकि सनद रहे के एक दिन आकाश ,छतों ,डोर और पतंगों के नाम था .....
आज घर से दूर, छत से दूर कीबोर्ड खटखटाते हुए, बसंत की स्वर्णिम आभा जी रही हूँ ... आप सभी को बसंत की शुभकामनाये ..

Tuesday, February 12, 2013

"बहाने बसंत के" (2)


"बहाने बसंत के"(1)
बसंत की सुबह अक्सर पापा के फरमान से होती ...बिना नहाय कोई छत पर नहीं चढ़ेगा ..जानते थे एक बार जो चढ़ गया वो किसी हालत में नीचे नहीं उतरेगा,वो बालपन का जोश वो उत्साह , बीच-बीच में दादी फ़्लैश बेक में चली जाती "घर में इन बच्चों के कुर्ते पीले रंग में रंग देते थे क्या मजाल कोई बच्चा बिना नहाय छत पर चढ़ जाए ... "
अपनी अलमारियों में पीले कपड़ों की ढूंढ शुरू हो जाती आखिर ऋतुराज का स्वागत उनके मन-भावन रंग में ही तो करना चाहिए,बचपन से कैशोर्य के बीच छतों पर बहार का त्यौहार लगने लगा था हर छत आबाद ,आँखे आकाश की ओर,

 फुर्सत भरा फिर भी बेहद व्यस्त दिन ,थकाने वाला पर फुर्तीला दिन जो चेहरे साल भर नहीं दीखते थे वो भी उस दिन नज़र आ जाते , कदम बरबस छत की और चल पड़ते कुछ ख़ास कम्पटीशन होते , सबसे पहली पतंग किसने उड़ाई , सबसे बड़ी पतंग , सबसे ज्यादा पतंगे किसने काटी ,किसके म्यूजिक सिस्टम पर सबसे नए गाने बजे, किसकी उंगलियाँ सबसे ज्यादा ज़ख़्मी हुई    .

 आखिर बसंत के बाद मोहल्ले के मोड़ों पर डिस्कस करने का मसाला भी तो चाहिए .

खैर ,वैसे तो सार साल पतंगे आसमान के पहलु में गोते खाती पर तीन दिन इस  त्यौहार को ख़ास बना देते पहला छोटा बसंत ,बसंत और बूढा बसंत

कितने तरह की पतंगे सजी धजी , नई पतंगों पर जब कन्ने बांधे जाते और नजाकत से उनके मुढ्हे मोड़े जाते ताकि हवा का सामना करने को तैयार हो जाए .

बसंत की सुबह की सबसे बड़ी चिंता हवा का रुख होती आखिर सही हवा के बिना पूरे दिन पतंग कैसे उड़ाई जायेगी ,कहीं तूफानी हवा चल गई तो त्यौहार का सत्यानाश।  मिन्नतो का दौर चल पड़ता.
बच्चे अल सुबह से छत पर होते बड़े 10-11 बजे तक औरते सारा काम निपटा कर दोपहर में नाश्ता ,फल ,भुने आलू ,मूंगफली ,तहरी (पुलाव) से लेकर चाय के कई दौर सब छत पर,

हसी ठहाके तो गूंजते पर, कई समझौते भी पडोसी छतों से किये जाते ...मसलन "तुम मेरी पतंग नहीं काटोगे , लंगर नहीं डालोगे , पंतग कट गई तो डोर नहीं लूटोगे , ये बात अलग है दिन ढलते ढलते सारे समझोते टूट जाते , आखिर आकाश युद्ध में ऐसे समझोते कहाँ चलते है। बड़े बुजुर्गों का छतों पर रहना सुरक्षा और सद्भाव बनाय रखता , थोड़ी तू-तू मैं - मैं  से मामला सुलझ जाता ... सारी रंजिशें पतंगों के साथ कट जाती (हर बार ऐसा नहीं होता एक जनाब हमारी छत पर कट्टा (देसी तमंचा ) लेकर चढ़ आये थे :-) )

सारा दिन तेज़ गीतों के ..कटी  पतंगों  के नाम रहता शाम को आकाश भर आतिशबाजी,एक दुसरे की छत पर जाना लजीज नाश्तों की प्लेटों की अदला बदली , और कुछ रंगारंग कार्यक्रम और बसंत बीत जाता, बड़ी पतंगे वापस अपने चौकोर बक्सों में आराम करती ,चरखी सारे दिन  चक्कर खाने के बाद सुस्ताती, छत अगली सुबह के सन्नाटे को सोच उदास हो जाती, थके हारे नौनिहाल नींद में वो- काटा चिल्लाते या अपनी पतंग काटने के दुःख में नींद में सुबकते हुए भी पाए जाते , पैरों का दर्द रात को महसूस होता ,तेज मांझे से कटी उंगलिया टीस मारती पर बसंत से मोहब्बत वैसी ही रहती 

(किस्सा लंबा होता जा रहा है मेरी बसंत के लिए दीवानगी ही ऐसी है अगर आप सब सुनना चाहेंगे तो बयान करेंगे छज्जे -छज्जे का प्यार वरना इतना ही काफी है )

Monday, February 11, 2013

बहाने बसंत के



अक्सर सोचती हूँ के बसंत मुझे बावरा क्यों करता है ,गीतों कविताओ और प्रेम से पहले भी बसंत मन लुभाता था ...पतंगों से घिरा आकाश, तीन दिन पहले से पतंगों में हिस्सेदारी छोटी छोटी चरखियां , नशे में झूमती इस छत से उस छत गिरती कागज़ की परियां और उनको पाने को लालायित चेहरे ,  और जिस हाँथ में वो परी उतरी उसके चेहरे का विजयी भाव देखने लायक ...

बसंत की तैयारी बसंत से एक रात पहले हिस्सा लगता, चोकोर बक्से निकले जाते जो खास तौर पर पतंग रखने के लिए दादाजी और उनके पूर्वजों ने बनवाये थे उसमें विशालकाय " अद्धा ,पौना " पतंगे सारे साल सुकून से सोती उन बड़ी पतंगों को हम हैरत से ताका करते यही हाल चर्खियों के बड़े भाई चरखों को देखकर होता , शीशम और संगमरमर के काम की नक्काशी वाली खूबसूरत ख़ास चरखियां जिन्हें हाँथ में थामने की हमारी ललक ,ललक ही रह जाती , हम हांथों में रंगबिरंगी छोटी छोटी चरखियां थामकर उल्लास में डूब जाते .... फिर आता सबसे कठिन समय जब पतंग-सद्दी -रील का बंटवारा होता,ये सार हिसाब किताब मेरे बड़े ताउजी के हांथों में था, और उनके फैसले पर कोई ऊँगली उठा ही नहीं सकता था। सबकी धड़कने तेज ,बिना किसी भेदभाव के सारे छोटे बच्चे बराबर पतंगे पाते बड़ों का कोटा ज्यादा था , हमारे भाई बिगड़ जाते ..

"ये उडाती तो है नहीं फिर इसको इत्ती सारी पतंगे क्यों ?"
उन्हें ताउजी  आँख के इशारे से कंट्रोल कर देते ,आखिर उनकी लाडली भतीजियों से कोई कुछ कैसे कह सकता है , पतंगों के बटवारे के बाद हत्थे पर चरखी रखकर तागा चढाने का काम शुरू होता, और भाई की कोशिश शुरू हो जाती , "अरे अपनी गिट्टी मुझे अपनी चरखी में चढ़वाने दे ,मैं तुझे पतंग ऊँची करके दे दूंगा ", और हम बहल भी जाते . रात को ही फटी-टूटी पतंगों के इलाज का भी इंतज़ाम कर दिया जाता उबले आलू ,चावल , लेइ .

                        
बसंत पंचमी के दिन सुबह कुछ ज्यादा जल्दी हो जाती आस-पास के घरो में बजने वाला तेज संगीत और वो-काटा का उदघोष ,आप चाहकर भी नहीं सो सकते ....
(अगले भाग में ... पीले कपडे ,पीले चावल और छज्जे-छज्जे का प्यार :-) )

Thursday, February 7, 2013

सारा टाइम काँय-काँय



फलाना बैंड नहीं चलेगा
ढिमाकी फिल्म नहीं चलेगी
कला प्रदर्शनी नहीं चलेगी
ये लेखक नहीं चलेगा
वो निर्देशक नहीं चलेगा
तू बोला तो क्यों बोला
मुंह खोला तो क्यों खोला
ऐसे कपडे नहीं चलेंगे
पुतले पुतली रोज जलेंगे
ख़बरों के छोटे टुकड़े कर
ब्रेकिंग न्यूज़ में रोज़ तलेंगे 
इसके विचार  हाय हाय
उसका घर बार हाय हाय
फुर्सत कितनी इनको देखो
सारा टाइम काँय-काँय-काँय-काँय