मैं क्या सोचती हूँ ..दुनिया को कैसे देखती हूँ ..जब कुछ दिल को खुश करता है या ठेस पहुंचाता है बस लिख डालती हूँ ..मेरा ब्लॉग मेरी डायरी है ..जहाँ मैं अपने दिल की बात खुलकर रख पाती हूँ
Monday, May 17, 2010
क्षणिकाए (दर्द)
वो लड़की
झांकती झरोखे से
शायद कही धोखे से
उसकी झलक दिख जाए
सारी तृष्णा मिट जाए
वो लड़का
कुछ बेखयाल सा
बिगड़े सुरत-ए-हाल सा
रस्सी सा एठा है
सबसे खफा बैठा है
चार आँखे
दो पथ निहारती
दो सबकुछ वारती
शायद एक हो जाए
एक दूजे में खो जाए
दो अर्थियां
जिन्होंने जन्मा था
उन्होंने मारा है
जाति का एहसान
ऐसे उतारा है
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क्षणिकाए
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waah! bahut sundar abhivyakti!
ReplyDeleteखूबसूरत।
ReplyDeleteआज के गोत्रवादी समाज के लिये शानदार प्रस्तुति।
Hi..
ReplyDeleteKavita main hi prashn kiya hai..
Dard ka usko naam diya..
Jinko paala posa jin ne..
Un ne hi hai maar diya..
Sundar kavita..
Antim anuchhed dard bhara..
DEEPAK..
www.deepakjyoti.blogspot.com
वाह!है क्षणिकाए....
ReplyDeleteपर क्षणिक असर नहीं है इनका....
जी बहुत सुन्दर!
कुंवर जी,
Hi..
ReplyDeleteSundar kavita..
DEEPAK..
achhe shabdon ko jodkar ek bahut hi khubsurat rachna banayi hai aapne......
ReplyDeleteदो अर्थियां
ReplyDeleteजिन्होंने जन्मा था
उन्होंने मारा है
जाति का एहसान
ऐसे उतारा है ....khubsurat,marmik rachna.
... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
ReplyDeleteदो अर्थियां
ReplyDeleteजिन्होंने जन्मा था
उन्होंने मारा है
जाति का एहसान
ऐसे उतारा है
बेहद मार्मिक और त्रासद
बेहद मार्मिक....आज कि त्रासदी लिख दी है....
ReplyDeletewaah sonal ji bahut sundar aur marmik prastuti...saamyik rachna...badhai
ReplyDeleteबेहद मार्मिक .......
ReplyDeleteआप सभी का शुक्रिया अदा करती हूँ हौसलाफजाई के लिए
ReplyDeleteदो अर्थियां
ReplyDeleteजिन्होंने जन्मा था
उन्होंने मारा है
जाति का एहसान
ऐसे उतारा है
ye sabse achcha hai....
Waah...bahut bahut sundar....teeno hi kshanikayen lajawaab hain...
ReplyDeleteवाह ...कम शब्दों ..बढ़िया बात कही ...आजकल भी गाँव और देहाती क्षेत्रो में ऐसा बहुत हो रहा ....सरकार मूक बैठी रहती है
ReplyDeleteशहद की सी मिठास लिए हैं ये क्षणिकाएं..
ReplyDeleteशहरो का हाल ही बुरा है..दूर देहात का क्या कहना.....जब से वर्ग पर अधारित समाज जन्म से जाति तय करने लगा तब से सिर्फ पतन, पतन औऱ पतन, अभी कितना और होगा पता नहीं..1000 साल से गुलाम देश को जगाने के लिए संतो ने अपना जीवन होम कर दिया..पर नतीजा बेहद निराशजनक....माता पिता पर भरोसा कर उनके ही छांव तले मौत पाई......इससे बढी विंडबना समाज की क्या होगी....अब तो जागो...दोस्तो..हिम्मत करो .
ReplyDeleteचार आँखे
ReplyDeleteदो पथ निहारती
दो सबकुछ वारती
शायद एक हो जाए
एक दूजे में खो जाए
वाह!!
बहुत खूब... दर्द समेटे हुए बेहद मार्मिक हैं ये क्षणिकाएं..
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी|
ReplyDeleteआशा
"प्रेम" समाज-विरोधी तत्व है.
ReplyDeleteप्रेम जो स्वतंत्रता चाहता है, समाज अगर उसे देदे..तो उसके (समाज के) होने पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है. प्रेम निजता की परम घोषणा है और समाज निजता के विपरीत बात है.
इस द्वन्द को कविता मे खूब उभारा आपने!
स्नेह!
ओह!! जबरदस्त!
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति!
har alag alag para apne aap me ek akvita hai ...aur sara para milkar ek nayi kavita hai...kya dhansu soch hai ... aur kitni sach bhi hai...
ReplyDeleteMaarmik ... pata nahi aur kitni jaane is jaatiwad ke jahar mein bhasm hongi ... sach mein bahut hi maarmik abhivyakti hi ...
ReplyDeleteप्रशंसनीय ।
ReplyDeleteप्रशंसनीय ।
ReplyDeleteप्रशंसनीय ।
ReplyDeleteThis comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति!
ReplyDeletesundar abhivyakti
ReplyDeleteकम शब्दों में बहुत कहा!
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