मेरे घर के आँगन में
धुप तिरछी पड़ती थी
ठीक नौ बजे नौबजिया
की कली खिलती थी
सुबह स्कूल जाने
की हडबडाहट में
गर्म दाल चावल से अक्सर
ऊँगली और जीभ जलती थी
निकलना देर से
और पहुँचने की जल्दी में
कच्ची पगडण्डी पे कितनी बार
गिरती संभालती थी
बरस बीत गए लेकिन
ज़िन्दगी आज भी
इमली के पेड़ तले
ठहरी मिलती है
मेरे घर के आँगन में
ReplyDeleteधुप तिरछी पड़ती थी
BEHTREEN RACHNAA
किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।
ReplyDeleteज़िन्दगी आज भी
ReplyDeleteइमली के पेड़ तले
ठहरी मिलती है .....वाह
अरे! वाह बहुत सुन्दर पँक्तियाँ......"
ReplyDeleteमेरे आँगन में पड़ने वाली धूप
ReplyDeleteआज भी नीम तले खड़ी है ...
वाह ...!!
बरस बीत गए लेकिन
ReplyDeleteज़िन्दगी आज भी
इमली के पेड़ तले
ठहरी मिलती है
बहुत सुन्दर !
सच कहा आपने दौडती भागती जिन्दगी में हमें पता ही नहीं चलता कि हम एक ही जगह ठहर से गए हैं , सुन्दर रचना
ReplyDeleteकाश कि जिंदगी ऐसी ही कहीं इमली के पेड़ के नीचे ठहर जाये :)
ReplyDelete"ज़िन्दगी आज भी
ReplyDeleteइमली के पेड़ तले
ठहरी मिलती है"
बहुत खूब - ये ठहरन भी जीवन में अति आवश्यक है.
ज़िन्दगी आज भी
ReplyDeleteइमली के पेड़ तले
ठहरी मिलती है
बहुत भावपूर्ण है रचना
बरस बीत गए,
ReplyDeleteलेकिन
ज़िन्दगी आज भी
इमली के पेड़ तले
ठहरी मिलती है!
--
इस कविता को पढ़ने के बाद
दुनिया-भर की आंचलिकता
मेरे मन में समा गई!
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteachhi nazm
ReplyDeletehar baar kahaaN padhne ko milti hai
lekin
aaj mn kartaa hai
k
aapko aabhaar kahoooN...
आपकी अच्छी कविता के सम्मान मेँ प्रतिकविता समर्पित है :-
ReplyDelete*अतीत*
अतीत अपना
हसाता कम
रुलाता ज्यादा हैँ
फिर भी
अतीत के पासंग
जीना
भाता बहुत।
याद
फिर फिर
भूला
आता बहुत
बीते निमिष
पलटता अतीत
टपकाता आंख से
अभिव्यक्ति की लाचारी।
इमली का पेड़
अकेला ही नहीँ
सबब तो
और भी रहे
यादोँ का अक्स
उकेरने वाले।
सपनोँ सा
बहाना बन
उभर आता है
आंखोँ मेँ
केवल
इमली का पेड़
न जाने क्योँ
हर बार।
[कागद]
लाजवाब रचना .....बहुत खूब
ReplyDeleteधन्यबाद...
ReplyDelete@ ओम पुरोहित जी
ReplyDeleteबेहद सुन्दर प्रतिकविता धन्यवाद
Is kavita ko padhkar bhavbibhor ho gaya ... kuch yaadein phir taazi ho gayi... aankhon me phir kuch jalan si...gale me phir kuch atka sa...dil me kuch bhari pan...
ReplyDeletesach hi hai ki ... shobdon me bhi asar hai ... unhe sahi dhang se prayog karne wala chahiye!
aapki abhqyakti ki saralta ko dekhkar khud ba khud nikalta hai ..waah ..bahut khoob..
ReplyDeletebas us thehri si zindagi mein jeene keliye hum fir wahin wapas pahunch jaate hain..
ReplyDeleteज़िन्दगी आज भी
ReplyDeleteइमली के पेड़ तले
ठहरी मिलती है
bahut sahi kaha.... amua tale phir se jhule padenge
मेरे घर के आँगन में
ReplyDeleteधुप तिरछी पड़ती थी
i love this line...mast hai
सुबह स्कूल जाने
की हडबडाहट में
गर्म दाल चावल से अक्सर
ऊँगली और जीभ जलती थी
awwwww....so sweet, ye bhi likh diya.... :)
निकलना देर से
और पहुँचने की जल्दी में
कच्ची पगडण्डी पे कितनी बार
गिरती संभालती थी
बरस बीत गए लेकिन
ज़िन्दगी आज भी
इमली के पेड़ तले
ठहरी मिलती है
superrrrrrb...!! thanks iska link mere paas chodne ke liye.....beautiful nazm