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Wednesday, April 14, 2010

कुछ लम्हे

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हाँथ रख कर मांथे पर


ताप क्यों देखते हो


मेरी आँखों में देखो


भाप की बूंदे उभर आई है


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अपनी किस्मत आजमा सकती


नई नज़्म गुनगुना सकती


एक पल को ही सही


शायद मैं मुस्कुरा सकती


.....................................


आशाओं और उम्मीदों से


ज़िंदा हूँ मैं


वो समझते है


साँसों का चलना ज़िन्दगी है


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11 comments:

  1. ज़िंदा हूँ मैं
    वो समझते है
    साँसों का चलना ज़िन्दगी है



    ..............बहुत खूब, लाजबाब !

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  2. एहसास की यह अभिव्यक्ति बहुत खूब

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  3. लाजवाब रचना ......प्रत्येक पंक्तियाँ भावों कि गहराई को व्यक्त कर रही है .

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  4. हाँथ रख कर मांथे पर


    ताप क्यों देखते हो


    मेरी आँखों में देखो


    भाप की बूंदे उभर आई है

    ...vaah bahut sundar.

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  5. कमाल की क्षणिकाएँ हैं सब ... बहुत गहरा मतलब लिए ... वाह वाह निकलता है पढ़ने के बाद ...

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  6. आखिरी पंक्तियाँ बहुत कमाल की है और भाप की बूँदें गोया आंसू वाष्प से पुनः घनीभूत हो गाल पर ठहर गए हो.

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  7. सोनल जी कहीं से घूमता आया आपके ब्‍लाग पर। चार पंक्‍तियों का आपने बहुत सुंदर उपयोग किया है। सहज और सरल शब्‍दों में गहरी बात कही है। अपनी कविताओं में यह ताप बनाए रखिए। आपके परिचय में आपने कहा है कि आप एक छोटे नगर की लड़की हैं और कविताई ह्दय रखती हैं। यह जो तथाकथित छोटा नगर है इसे बचाकर रखिए। इसे मेट्रो की हवा मत लगने दीजिए। असली संवेदनाएं यहीं से आती हैं खासकर सरल शब्‍दों में। कविताओं का मेरा भी एक ब्‍लाग है गुलमोहर http://gullakapni.blogspot.com कभी देखें। शुभकामनाएं।

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  8. अनुभूतियों को सुन्दरता से व्यक्त किया आपने..."

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  9. "आशाओं और उम्मीदों से
    ज़िंदा हूँ मैं
    वो समझते है
    साँसों का चलना ज़िन्दगी है"

    kahne ko ye chand shabd hain
    lekin kitne gahre bhaav hain ismen
    kaash mai sahi tarah taareef kar paati

    bas.... bahut hi achha
    with regards

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  10. आशाओं और उम्मीदों से


    ज़िंदा हूँ मैं


    वो समझते है


    साँसों का चलना ज़िन्दगी है
    बहुत सुन्दर क्षणिकाएं.

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