"मैं तो खुश थी अपनी गुडिया के साथ
कहाँ माँगा था सारा आकाश
गुड्डे के साथ डोली चढ़ बैठी
नन्ही सी गुडिया गोद में आ बैठी
मैं तो फिर भी खुश थी
अपने नन्हे सोते जागते खिलौनों के साथ
मैंने तो नहीं माँगा था
कभी कोई पारिजात
तुमने हाँथ बढ़ाये तो
मुझे पाँव निकलने पड़े
अपने नन्हे मुन्हे पूरा दिन
दूसरों के पालने में डालने पड़े
बाहर संभाला घर भी देखा
चकरी की तरह घूमी भी
किसी को कोई कमी रहे ना
अपनी सेहत पीछे छूटी भी
पर तुम्हारा छिद्रान्वेषण
छलनी करता है मन को
इतने कांच कभी न चटके
जितनी बार टूटी मैं
अच्छा है. जारी रखिए..
ReplyDeleteबढ़िया अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteसत्य का संप्रेषण..
ReplyDeleteसोना टूट कर भी जुड जाता है.....
ReplyDeleteमाँ होती ही ऐसी है.....
दिल से निकली कविता ऐसी ही होती है.....
nice poem with realistic approach of life.
ReplyDelete-you can read my poem-
http://drashokpriyaranjan.blogspot.com
-my article-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
पर तुम्हारा छिद्रान्वेषण
ReplyDeleteछिद्रान्वेषण......
छिद्रान्वेषण.....
Haunting.
hmmm. Kuch kehne ko baki nahin raha.
पर तुम्हारा छिद्रान्वेषण
ReplyDeleteछलनी करता है मन को
इतने कांच कभी न चटके
जितनी बार टूटी मैं
वाह क्या एहसास पिरोया है.
बहुत सुन्दर्
बढ़िया अभिव्यक्ति....
ReplyDeletenaari man ka khoobsurat chitran...aabhar
ReplyDeleteवाह...नारी मन की व्यथा का बहुत ही भावपूर्ण चित्रण किया है आपने.
ReplyDeletevaah.....kyaa baat hai....!!
ReplyDeleteare aapto gurgoan ki hai...humare hi rajya ki..
ReplyDeletei m from hisar
Ye chhidranvesan mujh jaise purus ko ek aaina dikha gaya..
ReplyDeleteDhanyavaad