चलो तुमको यकीं तो हुआ
कि मैं इसमें तनहा मुजरिम नहीं थी
कुछ हालत थे कुछ मजबूरी थी
बेवफाई मेरी फितरत में शामिल नहीं थी
चाहती तो पहले भी बता सकती थी तुम्हे
अपनी मजबूरी कि भी लम्बी कहानी थी
पर तब शायद तुमको यकीं नहीं आता
मेरी बेगुनाही ज़माने पर ज़ाहिर नहीं थी
पर अब तुमको यकीन दिलाने के बाद
मेरा यकीं तुमपर डगमगा गया है
ज़रा सी हवा से ढहा जाते है रिश्तों के महल
मुहब्बत से भी कुछ हासिल नहीं है
देने के बाद अग्निपरीक्षा
इनकार करती हूँ तुम्हारे साथ से
वापस नहीं आता कभी दरिया का पानी
जो निकल गया हाँथ से
v good
ReplyDeleteसंवेदनशील......
ReplyDeleteग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .
ReplyDeletenice photo..
ReplyDeleteVery important poem of yours.
ReplyDeleteअब तो गुजर जाने दो वो दौर
ReplyDeleteमत दो तुम अब अग्निपरीक्षा और
bahut sundar line ,,,,achhi rachna
ReplyDeleteVIKAS PANDEY
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