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Saturday, March 27, 2010

दुआ दूं या बददुआ


आज तुम्हारी बेवफाई से वाकिफ हुए है




क्या समझोगे कितने दर्द से गुज़रे हैं



जब थे मेरे साथ और ख़याल था गैर का



ऐसे लम्हे भी ज़िन्दगी से गुज़रे हैं







तुम थे खामोश हम समझे खफा हो



गुमसुम थे तो समझे कुछ जुदा हो



कोशिश की खुशिया भर दूं दामन में



अनजान थे तुम किसी और के भी खुदा हो







दर्द इतना है की रो भी नहीं पा रहे है



होश गुम है न जाने कहाँ जा रहे है



तुम्हारे सिवा दुनिया भी नहीं देखी



इस भरी दुनिया में तनहा नज़र आ रहे है





दुआ दूं या बद्दुआ तुम ही बताओ

कोई हल हो तुम ही सुझाओं

निभाई है मुझसे बे-वफाई जिस वफ़ा से

तुम्हे ख़त्म कर दूँ या खुद को मिटाऊं

9 comments:

  1. निभाई है मुझसे बे-वफाई जिस वफ़ा से
    तुम्हे ख़त्म कर दूँ या खुद को मिटाऊं

    ओह बेरुखी से उत्पन्न आक्रोश को...किस अनादाज़ में बयाँ किया है...बहुत खूब

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  2. दुआ ही दे दो..जाने क्या मजबूरियाँ रही होंगी वरना कोई बेवफा नहीं होता..



    बहुत उम्दा रचना!

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  3. तुम्‍हें खत्‍म कर दूं या खुद को मि‍टाऊं - दोनों का मतलब तो एक ही है जी साफ साफ धमकी दी जा रही है।

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  4. dard umad ke barasta dikhta hai yahan par to..

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  5. man ki baat to Udan Tashtri ji ne kah diya hai ........behad sundar rachna..

    विकास पाण्डेय
    www,vicharokadarpan.blogspot.com

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  6. bas dua he de dijiye.. bad bua chahne walon se hoti kahan hai...

    kafi achcha likha hai..

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  7. bahut dard hai..jane kaise sameta itna ashk dil ke ander jo aaj tak lahu ban kar tapak rahe hain..mujhe to saja mili hai wafa kane ki isliye tanha bhatak rahe hain..achha likha hai..pasand aaya

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