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Sunday, March 21, 2010

इनकार करती हूँ

चलो तुमको यकीं तो हुआ
कि मैं इसमें तनहा मुजरिम नहीं थी
कुछ हालत थे कुछ मजबूरी थी
बेवफाई मेरी फितरत में शामिल नहीं थी

चाहती तो पहले भी बता सकती थी तुम्हे
अपनी मजबूरी कि भी लम्बी कहानी थी
पर तब शायद तुमको यकीं नहीं आता
मेरी बेगुनाही ज़माने पर ज़ाहिर नहीं थी

पर अब तुमको यकीन दिलाने के बाद
मेरा यकीं तुमपर डगमगा गया है
ज़रा सी हवा से ढहा जाते है रिश्तों के महल
मुहब्बत से भी कुछ हासिल नहीं है

देने के बाद अग्निपरीक्षा
इनकार करती हूँ तुम्हारे साथ से
वापस नहीं आता कभी दरिया का पानी
जो निकल गया हाँथ से

7 comments:

  1. ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .

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  2. अब तो गुजर जाने दो वो दौर
    मत दो तुम अब अग्निपरीक्षा और

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  3. bahut sundar line ,,,,achhi rachna

    VIKAS PANDEY

    WWW.VICHAROKADARPAN.BLOGSPOT.COM

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