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Monday, March 22, 2010

वो जिद पे अड़ा है

वो जिद पे अड़ा है


वो सबसे बड़ा है

मुद्दत से यही तो

वो दोहरा रहा है



दुनिया का बोझ लिए

अपने दिमाग पर

अपने ही घर को

भूला जा रहा है



बात करता है हरदम

वो मजहब खुदा की

इंसानियत तो उसको

याद ही नहीं है



चुन चुन कर निशाना

वो साधे हुए है

किसी की सुनने को

तैयार ही नहीं है



पैगम्बरों ने हमेशा

जोड़ा है दिलो को

बेबसों को हर दम

गले से लगाया



मोहब्बत तो हर

दीन का फलसफा है

ये नफरत के किस्से

कहाँ से सीख़ आया



वो जिद पे अड़ा है

9 comments:

  1. बात करता है हरदम

    वो मजहब खुदा की

    इंसानियत तो उसको

    याद ही नहीं है
    sach sahaj v sampoorn

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  2. क्या बात है ......लाजवाब रचना

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  3. वाह सोनल जी !
    आज के परिप्रेक्ष्य में बहुत प्रभावशाली कविता ! जगह बनाती इस कविता के लिए शुभकामनायें

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  4. Dear Sonal,

    gr8 ur poem.........is marvellous

    Keep it up......will cal u in Kavi Sammelan
    Best of Luck

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  5. "बात करता है हरदम

    वो मजहब खुदा की

    इंसानियत तो उसको

    याद ही नहीं है"

    bahoot khoob.....
    kunwar ji,

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  6. beautiful creation..
    aur shayas agar "WO" padhe to zid se zaroor hat jayega..

    bahut achcha lekh hai..

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